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* जिनसहस्रनाम टीका ४७*
हैं। वा केवलज्ञान की अपेक्षा आपकी आत्मा सर्वत्र व्याप्त होने से आप प्रभूतात्मा
भूतनाथ : = भूतानां प्राणिनां देवविशेषाणां च नाथ: स्वामी स भूतनाथ : अथवा भूतैः पृथिव्यप्तेजो वायुश्चतुर्भिर्भूतैरुपलक्षितो नाथः सः भूतनाथ, अथवा भूतानां अतीतानां उपलक्षणत्वात् वर्तमान भविष्यतां च नाथः स भूतनाथ, अथवा भुवि पृथिव्यां उता संतानं प्राप्ता पृथिव्याद्या ये ते भूतः तेषां नाथः स भूतनाथ : ऋतु भूतों के प्राणों के नाथ स्वामी हैं । तथा भूत पृथिवी, जल, अग्नि, वायु इनसे उत्पन्न हुए प्राणियों के भगवान, नाथ, स्वामी हैं। अथवा भूत अतीत के भगवान नाथ हैं। भूत शब्द यहाँ उपलक्षण है। यह वर्तमान तथा भविष्य का भी ग्रहण करता है। अर्थात् प्रभु भूत- - वर्तमान तथा भविष्यत् सर्व पदार्थों के नाथ स्वामी हैं। अथवा भुवि पृथ्वी पर उतः सन्तान परंपरा को प्राप्त हुए जो पृथिवी, हवा, पानी, अग्नि आदिक प्राणी उनके प्रभु नाथ स्वामी हैं।
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जगत्प्रभुः = जगतस्त्रैलोक्यस्य प्रभुः स्वामी स जगत्प्रभुः = तीन जगतों के, त्रैलोक्य के जिनदेव स्वामी हैं प्रभु हैं अतः जगत्प्रभु कहे जाते हैं। सर्वादिः सर्वदृक् सार्व: सर्वज्ञः सर्वदर्शनः ।
सर्वात्मा सर्व्वलोकेशः सर्ववित् सर्व्वलोकजित् ॥९ ॥
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अर्थ : सर्वादि, सर्वद्र, सार्व, सर्वज्ञ, सर्वदर्शन, सर्वात्मा, सर्वलोकेश, सर्ववित्, सर्वलोकजित् ये नव नाम भगवन्त के हैं।
टीका सर्वादिः = सर्वस्य जगतः आदिरुद्भवः यस्मात् स सर्वादि:
सर्व जगत् की आदि, उत्पत्ति जिनसे हुई हैं ऐसे जिनराज सर्वादि कहे जाते हैं। धर्मसृष्टि की उत्पत्ति जिनेश्वर से ही होती है अतः वे सर्वादि हैं।
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सर्वदृक् = सर्वं पश्यति सर्वप्रमाणैरिति सर्व्वदृक् = सर्व जगत् को भगवान सर्व प्रमाणों से देखते हैं।
सार्वः = सर्वेभ्यः सुदृष्टि मिथ्यादृष्टिभ्यः एकेंद्रिय द्वीद्रिय-त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रिय-पंचेन्द्रिय-सूक्ष्म बादर पर्याप्त लब्ध्यपर्याप्तादि जीवानां हितः स