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* जिनसहस्रनाम टीका - ५१ ** केवलज्ञान हो जाने से 'वि' नष्ट हो गया है श्रुतज्ञान जिनका अतः वे विश्रुत
विश्वतः पादः = विश्वस्मिन् विश्वतः “सार्वविभक्तिकस्तसित्येके' विश्वतः ऊर्ध्वलोक मध्यलोकाधोलोकेषु पादावंध्री यस्य स विश्वतः पाद: केवलज्ञानसूर्यत्वात् = सम्पूर्ण विश्व में अर्थात् अधोलोक, मध्यलोक तथा ऊर्ध्वलोक में जिनेश्वर के दो पाँच फैले हुए हैं। अत: वे विश्वत;पाद हैं। अर्थात् हिरेश्वर के के लमान रूपी पूर्य की किरणे गपूर्ण विश्व में चिरन्तन फैली हुई हैं अत: वे विश्वत:पाद हैं। अथवा केवलज्ञान और केवलदर्शन रूप पाद (चरण) संसार में व्याप्त हैं, वा जिनके ज्ञान रूपी सूर्य की किरणें सारे जगत् में विस्तरित हैं, वे सारे जगत् को जानते हैं अतः विश्वत:पाद हैं।
विश्वशीर्षः = विश्वस्य त्रैलोक्यस्य शीर्ष उत्तमाग यस्य स विश्वशीर्षः त्रैलोक्याग्रनिवासत्वात् = विश्व का त्रैलोक्य का मस्तक अर्थात् मुक्तिस्थान जिनका निवासस्थान है ऐसे जिनेश को विश्वशीर्ष कहते हैं। अथवा लोक के शीर्ष भाग में विराजमान होने से आप विश्वशीर्ष हैं।
शुचिश्रवाः = शुचिनी पवित्रे श्रवसी कौँ यस्य स शुचिश्रवाः - शुचि पवित्र श्रवसी दो कान जिनके हैं ऐसे प्रभु शुचिश्रवा नाम के धारक हैं। अथवा आपकी श्रवण शक्ति निर्दोष होने से भी आप शुचिश्रवा है।
सहस्रशीर्षः क्षेत्रज्ञः सहस्राक्ष: सहस्रपात् । भूतभव्यभवद्भर्त्ता विश्वविद्या महेश्वरः॥११ ।।
अर्थ : सहस्रशीर्ष, क्षेत्रज्ञ, सहस्राक्ष, सहस्रपात्, भूतभव्यभवद्भर्ता, विश्वविद्यामहेश्वर ये नाम जिनदेव के हैं।
सहस्रशीर्षः = ‘सहमर्षणे धात्वादेः षः सः सह' इति सहसं 'सहेरसः' सहस्रशब्दोऽनेकपर्यायः सहस्रं शीर्षाणां अनंतसुखानां यस्य सः सहस्रशीर्षः अनंतसुखीत्यर्थ:
सहस्रं शब्द अनेक अर्थों वाला है। सह सहन करना है। अनन्त सुखी होने से आप सहस्रशीर्ष कहलाते हैं।