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* जिनसहस्रनाम टीका - ५५ * से प्रेष्ठ कहलाते हैं। 'इष्ट्' धातु श्रेष्ठ अर्थ में है, 'प्र' उत्कृष्ट अर्थ में, 'प्र'
आदेश होता है। इ का आदेश होकर प्रिय शब्द बनता है जिसका अर्थ है सारे जगत् में प्रिय होने से श्रेष्ठ है।
वरिष्ठधी: = वरिष्ठा विस्तीर्णा धीः केवलज्ञानलक्षणा बुद्धिर्यस्य स वरिष्ठधीः तथा चोक्तं हलायुधे -
बृंहदुरुगुरुविस्तीर्ण, पुरुष्कलं महद् विशालं च । व्यूढं विपुलं रुन्द्रं वरिष्टमेकार्थमुद्दिष्टम् ।।
वरिष्ठ बिस्तत 'धी' केवलज्ञान लक्षण बुद्धि जिसके है वह वरिष्ठधी कहलाता है।
हलायुध कोश में लिखा है
बृहद्, उरु, गुरु, विस्तीर्ण, पुष्कल, महद्, विशाल, व्यूढ, विपुल, रुन्द्र वरिष्ठ ये सर्व एकार्थवाची हैं अत: अत्यन्त विशाल अविनाशी बुद्धि जिनकी है वे वरिष्ठधी कहलाते हैं। (अथवा, श्रेष्ठ बुद्धि होने से वरिष्ठधी हैं।)
स्थेष्ठः = अयमेषामिंद्रनरेन्द्रधरणेन्द्रादीनां मध्ये अतिशयेन स्थिर; स्थेष्ठः = इन्द्र, नरेन्द्र, धरणेन्द्रादिकों में भगवान अत्यंत स्थिर हैं। अत्यन्त स्थिर निष्कंप होने से आप स्थेष्ठ हैं।
गरिष्ठः = अयमेषामतिशयेन गुरुः गरिष्ठः “प्रिय स्थिर स्फिरोरु गुरु बहुलतृप्रदीर्घह्रस्व वृद्ध वृंदारकाणां प्रस्थ स्फुवरगरबहवपद्राघहसवर्षवृंदा;'' =
इन उपर्युक्त इन्द्र, नरेन्द्र, धरणेन्द्र आदि के मध्य में अतिशय रूप से गुरु हैं, महान् हैं, स्थिर हैं अतः गरिष्ठ हैं।
__बंहिष्ठः = अयमेषामतिशयेन बहुलः स बंहिष्ठः = भगवान जिनदेव सबसे केवलज्ञानादि गुणों से विपुल पीवर मोटे हैं। वा गुणों की अपेक्षा अनेक रूप धारण होने से आप बंहिष्ठ हैं।
श्रेष्ठः = अतिशयेन प्रशस्यः श्रेष्ठः 'गुणादिष्ठेयन्सौ चा' प्रशस्य: श्रेष्ठः = केवलज्ञान-दर्शन-सुख-शक्त्यादि गुणों से श्रेष्ठ हैं। वा अत्यन्त प्रशंसनीय होनेसे श्रेष्ठ हैं।