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* जिनसहस्रनाम दीका - ५४ *
卐 तृतीयोऽध्यायः ॥ स्थविष्ठः स्थविरो ज्येष्ठः प्रष्ठ: प्रेष्ठो वरिष्ठधीः । स्थेष्ठो गरिष्ठो बंहिष्ठः श्रेष्ठोऽणिष्ठो गरिष्ठगीः॥
स्थविष्ठ, स्थविर, ज्येष्ठ, प्रष्ठ, प्रेष्ठ, वरिष्ठधी, स्थेष्ठ, गरिष्ठ, बहिष्ठ, श्रेष्ठ, अणिष्ठ, गरिष्ठगी ये बारह नाम जिनेश्वर के हैं।
__स्थविष्ठः = अयमेषामतिशयेन स्थूलः स स्थविष्ठः ‘गुणादिष्ठेयन्सी वा' स्थूल दूर वयुक्षिप्रक्षुद्राणामंतस्थादेर्लोपो गुणश्च = गुणों की अपेक्षा अत्यन्त विशाल होने से स्थविष्ठ हैं। अत्यन्त स्थूल को स्थविष्ठ कहते हैं- आप ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुणों में अति स्थूल हैं, महान् हैं अतः स्थविष्ठ हैं।
स्थविरः = मुक्तिपदे तिष्ठतीति स स्थविरः = जो मुक्तिपद पर तिष्ठते हैं, निश्चल रहने वाले हैं वे स्थविर कहे जाते हैं। अनन्त ज्ञानादिक गुणों के द्वारा वृद्ध होने से स्थविर कहलाते हैं।
___ ज्येष्ठः = अतिशयेन वृद्धः प्रशस्यो वा ज्येष्ठः = गुणादिष्टेयन्सौ बा वृद्धस्य च ज्य: चकारात् प्रशस्य च ज्य: - अतिशय वृहत् अथवा प्रशस्य ऐसे जिनदेव ज्ञानादि गुणों में वृद्ध होने से ज्येष्ठ हैं। अथवा लोक में श्रेष्ठ होने से भी ज्येष्ठ हैं।
प्रष्ठः = प्रकर्षेण अग्रे तिष्ठतीति प्रष्ठः 'आतश्चोपसर्गेऽङ्प्रत्ययः' - सबसे आगे तिष्ठने वाले सबके अग्रणी होने से प्रष्ठ हैं। सबके अग्रगामी होने से प्रष्ठ कहे जाते हैं।
प्रेष्ठः = अतिशयेन इंद्र-धरणेन्द्र - नरेन्द्र - मुनीन्द्र - चंद्रादीनां प्रियः प्रेष्ठ 'गुणादिष्टेयन्सौ वा' इष्ट प्रत्ययः, इष्ट प्रत्यये सति प्रियशब्दस्य प्र इति । आदेशः तद्वदिष्ठमेयस्सु बहुलमिति वचनात्। प्रिय स्थिर स्फिरोरुगुरु बहुल तु प्रदीर्घ हस्व वृद्धवृन्दारकाणां प्रस्थस्फुवरगरवहत्रपदाघ ह्रसवर्ष वृन्दाः प्रियशब्दस्य प्र आदेश:
अतिशय रूप से इन्द्र, धरणेन्द्र, नरेन्द्र, मुनीन्द्र, चन्द्रादि को प्रिय होने