________________
* जिनसहस्रनाम टीका - ४८ * सार्वः-सुदृष्टि, मिथ्या-दृष्टियों से लेकर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, लब्ध्यपर्याप्तादि जीवों का हित जिनदेव करते हैं, सर्व प्राणिवर्ग के ऊपर दया करने का उपदेश वे करते हैं अत: वे सार्व हैं।
सर्वज्ञः = सर्वत्रिलोककालत्रयवर्त्तिद्रव्यपर्यायसहितं वस्त्वालोकं च जानातीति सर्वज्ञः । तथा चोक्तं गौतमस्वामिना
यः सर्वाणि चराचराणि विधिवद् द्रव्याणि तेषां गुणान्, पर्यायानपि भूतभाविभवतः सव्वान् सदा सर्वथा। जानीते युगपत्प्रतिक्षण मतः सर्वज्ञ इत्युच्यते,
सर्वज्ञाय जिनेश्वराय महते वीराय तस्मै नमः॥ सर्व त्रैलोक्य तथा त्रिकालवर्ती द्रव्यपर्याय सहित वस्तुओं को तथा अलोक को प्रभु जानते हैं अतः वे सर्वज्ञ हैं, श्री गौतमगणधर ने भी सर्वज्ञ शब्द का विवरण ऐसा किया है- जो संपूर्ण चर द्रव्यों को अर्थात् क्रिया-युक्त जीवपुद्गलों को, संपूर्ण अचर द्रव्य-क्रियारहित द्रव्य धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल इनको उनके संपूर्ण विशेषों के साथ जानते हैं। तथा इन द्रव्यों के संपूर्ण गुणों को तथा उनके संपूर्ण भूत भावी और वर्तमान पर्यायों को सतत और सर्वथा युगपत् जानते हैं अतः जो यथार्थ कहे गये हैं उन महावीर सर्वज्ञ जिनेश्वर को मैं नमस्कार
करता हूँ।
सर्वदर्शन: = सर्व परिपूर्ण दर्शनं क्षायिक सम्यक्त्वं यस्य स सर्वदर्शनः, तथा चोक्तं श्री पद्मनंदिगुरुणा
दर्शनमात्मविनिश्चित्तिरात्मपरिज्ञानमीष्यते बोधः। स्थितिरात्मनि चारित्रं निश्चयरत्नत्रयं वन्दे॥
अथवा सर्वाणि च तानि दर्शनानि मतानि सर्वदर्शनानि तानि सन्तीति यस्य स सर्वदर्शन; सर्वदर्शननायक इत्यर्थः - परिपूर्ण क्षायिक दर्शन, क्षायिक परमावगाढ़ सम्यक्त्व जिनको प्राप्त हुआ है, वे जिनराज सर्वदर्शन हैं। इसी अभिप्राय को पद्मनंदी गुरु ऐसा कहते हैं, आत्मा का अनुभवप्राप्त होना दर्शन है, आत्मा का ज्ञान होना ज्ञान है तथा आत्मा में स्थिर होना चारित्र है, इस निश्चय रत्नत्रय को मैं वन्दन करता हूँ। अथवा संपूर्ण बौद्ध, साख्यादि दर्शन स्याद्वाद की अपेक्षा