________________
* जिनसहस्रनाम टीका - ३३ तीर्थकृत् = जिसके द्वारा संसार समुद्र पार किया जाता है ऐसे आधारादि द्वादशांग श्रुतज्ञान को तीर्थ कहते हैं। उस तीर्थकर्ता जिनेश्वर देव को “तीर्थकृत्" कहते हैं।
केवली = मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन चार घातिया कर्मों का नाश करने से केवलज्ञान उत्पन्न होता है, वह केवल-ज्ञान जिसके होता है वह केवली कहलाता है।
सो ही कहा है, उमास्वामी आचार्यदेव ने तत्त्वार्थ सूत्र मेंमोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणांतरायक्षयाच्च केवलं, केवलं केवलज्ञानं विद्यते यस्येति केवलं।
ईशानः = जिनेश्वर भगवान अहमिंद्रों के भी स्वामी हैं। अहमिन्द्र भी स्वस्थान में स्थित होकर प्रभु की वन्दना करते हैं। इसलिए भगवान ईश: हैं
सो ही कहा है - इष्टेऽहमिन्द्राणामपि स्वामी भवति ईशानः | पूजार्हः = पूजा के योग्य होने से पूजार्ह कहलाते हैं।
अथवा - पूजार्हः पूजा पूजायां पूजश्चुरादेच्च ईन् पूजनं पूजामिषिं चिति पूजिकथिकुचिर्चिस्पृहितोलिदोलिभ्यश्च अकारित लोपास्त्रियामादा पूजा जाता।
- पूज् धातु चुरादिगणकी है। इसमें 'ईन्' प्रत्यय होता है तथा पूजा में इषि, चिति, पूजि, कथि, कुचि, चर्चि, स्पृहि, तोलि, दोलि इनमें अकार होता है 'इ' का य होकर पूजयति. कथयति चर्चयति स्पृहयति, तोलयति दोलयति
आदि शब्दों की उत्पत्ति होती है। इनमें स्त्रीलिंग में 'आ' प्रत्यय होता है अकार ईकार का लोप होता है तब चर्चा अर्चा पूजा कथा आदि शब्दों की उत्पत्ति होती है।
___ अर्हमहपूजाया अर्हण पूजनं अर्हः पूजायाः अष्टविधार्चनस्य अर्हो योग्यः । पूजालक्षणं चारित्रग्रन्थेऽप्युक्तं - नित्यमहपूजा, चतुर्मुख पूजा, कल्पवृक्षपूजा, अष्टाहिकपूजा, ऐन्द्रध्वजपूजा इति तत्र नित्यमहः नित्यं यथाशक्ति जिनगृहेभ्यो निजगृहाद्गंध धूप पुष्पाक्षतादि निवेदनं, चैत्यालयं कृत्वा ग्रामक्षेत्रादीनां शासनदान मुनिजनपूजनं च भवति।