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* जिनसहस्रनाम टीका - ४३ * पताका, घर के ऊपर जो चिह्न होता है वह, सब एकार्थक कहे गए हैं। धर्म ही जिनकी कान्ति है, चिह्न है, ध्वजा है, केतु है अत: वे वृषकेतु हैं।
पायुधः - तृष्णेधार्मः स एव आयुधं प्रहरणं कर्मशत्रु निपातनत्वात् यस्य स वृषायुधः = वृषधर्म ही जिनेश्वर का आयुध है, उससे वे कर्मशत्रु को धराशायी करते हैं।
_वृषः = वर्षति वृणोति वा पापमनेन स वृषः = जो धर्म की वृष्टि, वर्षा करते हैं, उन्हें बुधलोक वृष कहते हैं।
वृषपतिः = वृषस्य अहिंसाधर्मस्य पतिः स्वामी वृषपतिः = अहिंसा धर्म को वृष कहते हैं, जिनेन्द्र उसके पति स्वामी हैं अतः वृषपति कहे जाते
__भर्ता = बिभर्ति धरति वा जगत् भव्यजनं उत्तमस्थाने धरति केवलादिगुणैः पुष्णातीति स भर्ता = भव्यजनों को उत्तम स्थान में जो धारण करते हैं ऐसे भगवान भर्ती हैं, तथा केवलज्ञानादि गुणों से जो भव्यों का पोषण करते हैं, वे प्रभु भर्ती
हैं।
वृषभांक: = वृषभः अंको लक्ष्म यस्य स वृषभाङ्क - उक्तमनेकार्थे अंकोभूषा रूपक लक्ष्म सुचित्रा जौ नाटकाद्यशे स्थाने क्रोडेऽतिकागसो: - वृषभ बैल जिनका लांछन है, अनेकार्थ कोश में अंक के अनेक अर्थ कहे हैं। अंक चिह्न, भूषा-आभूषण, रूपक, लक्षण, सुचित्र, नाटक का एक अंश, क्रीड़ा का स्थान आदि अनेक अर्थ वाला है। अतः वृषभ जिसका चिह्न है, भूषण है, लक्षण है अत: वृषभांक कहलाते हैं।
वृषोद्भवः = वृषस्य सुकृतस्य उद्भवः प्रादुर्भावो यस्य तस्मादा स वृषभोद्भवः अथवा वृषात् वृषभ दर्शनात् जन्म यस्य स वृषभोद्भवः = जिनको वृष की, पुण्य की उत्पत्ति हुई वे आदि जिन वृषोद्भव हैं, अथवा वृष का माता ने स्वप्न में दर्शन किया था इसलिए जिनेश्वर वृषोद्भत्र हैं।
हिरण्यनाभिभूतात्मा भूतभृद्भूतभावनः । प्रभवो विभवो भास्वान् भवो भावो भवान्तकः ॥७॥