________________
* जिनसहस्रनाम टीका - ४१ * नेताः = नयति स्वस्वधर्ममित्येवंशीलो नेता = जो जनता को रत्नत्रय धर्म के प्रति ले जाता है, उसे नेता कहते हैं, सब तीर्थंकरों ने जिसकी जैसी योग्यता है, उसे वैसा उपदेश दिया अतः वे भव्य जन के नेता हुए।
प्रणेताः = प्रणयति सृजतीति सृष्टिमार्गमिति प्रणेताः - जिसने प्रजा को सृष्टिमार्ग बताया, समीचीन जीवन मार्ग बताया, असि. मषि, कृषि आदि छह जीवन मार्ग बताये जो अल्पसावध के हैं।
न्यायशास्त्रकृत् = न्यायशास्त्र कामंदकीसोमनीति - प्रभृत्यविरुद्धं शास्त्रं कृतवान् स न्यायशास्त्रकृत् -
प्रभु ने राज्यावस्था में राजनीति से अविरुद्ध शास्त्र की रचना की तथा उसको अपने पुत्रादिकों को पढ़ाया।
शास्ता = शासु अनुशिष्टी, शास्ति धर्माधर्ममुपदिशतीति शास्ता गुरुरित्यर्थः - धर्म मार्ग हितकर है, मोक्षप्रद है, अधर्म मार्ग मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्रादिक संसारवर्धक हैं, ऐसा जिनदेव ने उपदेश किया, अतः वे भव्यों के शास्ता हैं, गुरु हैं।
___ धर्मपतिः = धर्मः चारित्रं रत्नत्रयं वा जीवानां रक्षणं वा वस्तु स्वभावो वा क्षमादि दशविधो वा, तस्य पति यक: धर्मपतिः, उक्तं च -
धम्मो वत्थुसहावो खमादिभावो य दहविहो धम्मो। रयणत्तयं च धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो ॥ जिनेश्वर धर्म के पति हैं, चारित्र धर्म है, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञानपूर्वक चारित्र अर्थात् रत्नत्रय धर्म है। क्षमादि भावरूप दस प्रकार का धर्म है तथा जीवों का पालन करना, उनका रक्षण करना धर्म है। पदार्थों के स्वभाव धर्म हैं। जिनने ऐसा यथार्थ प्रतिपादन किया अत; वे धर्मपति थे।
धर्म्य: - धर्मेभ्योहितो धर्म्य: यदुगवादितः = धर्म की प्रवृत्ति में तत्पर होकर जगत् में उसकी प्रभावना करने के लिए कटिबद्ध होने वाले जिनराज धर्म्य कहे जाते हैं।