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* जिनसहस्रनाम टीका - ३८ * निरञ्जनः = निर्गतं अञ्जनं कर्ममलं कलंक यस्येति स निरञ्जन: द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्मरहित इत्यर्थः । निरञ्जनलक्षणमुक्तं श्रीसोमदेवसूरिणा यशस्तिलकमहाकाव्ये =
क्षुत्पिपासा भयद्वेषाश्चिन्तनं मूढतागमः । रागो जरा रुजा मृत्युः कोधः स्वेदो मदो रतिः ।। विस्मयो जननं निद्रा विषादोऽष्टादश ध्रुवं । त्रिजगत्सर्वभूतानां दोषाः साधारणा इमे ।। एभिर्दोषैर्विनिर्मुक्त: सोऽयमाप्तो जिनेश्वरः ।
कर्म मल कलंक को अञ्जन कहते हैं और जिनेन्द्र के ये कर्म - द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म नहीं हैं इसलिए निरञ्जन हैं। सोमदेव आचार्य ने यशस्तिलक महाकाव्य में निरञ्जन का यह लक्षण कहा है- भूख, प्यास, भय, द्वेष, चिन्ता, मोह, राग, वृद्धावस्था, रोग, मृत्यु, स्वेद, क्रोध, मद, रति, आश्चर्य, जन्म, निद्रा तथा खेद ये अठारह दोष त्रिलोक के प्राणियों में पाये जाते हैं, जिसमें ये दोष नहीं हैं वही आप्त है, तथा वही निरंजन कर्ममल कलंक रहित है, ऐसा समझना।
तथा परमात्मप्रकाशे निरञ्जनस्वरूपं सूत्रत्रयेण व्यक्तीकृतं श्रीयोगीन्द्रदेवैः जासु ण वण्णु ण गंधु रसु जासु ण सदु ण फासु । जासु ण जम्मणु मरणु ण वि गाउ णिरंजणु तासु॥ जासु ण कोहु ण मोह मउ जासु ण माय ण माणु। जासु ण ठाणु ण झाणु जिय सो जि णिरंजणु जाणि ।। अत्थि ण पुण्णु ण पाउ जसु अस्थि ण हरिसु विसाउ।
अस्थि ण एक्कु वि दोसु जसु सो जि णिरंजणु भाउ॥ जिसमें वर्ण, गंध, रस नहीं; शब्द, स्पर्श, जन्म, मरण नहीं, उसका नाम निरञ्जन है, जिसमें क्रोध, मोह, मद, माया, अभिमान नहीं है। जिसके गुणस्थान
और ध्यान नहीं उसे निरंजन मानो। जिसमें पुण्य तथा पाप नहीं, हर्षविषाद नहीं, जिसमें कोई भी दोष नहीं उसे निरंजन समझो।