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* जिनसहस्रनाम टीका- १६
ऐसे पाँच ज्ञानों से प्रभु निष्पन्न हुए हैं, अतः वे पंचब्रह्ममय हैं, पहले चार ज्ञान केवलज्ञान में अन्तर्भूत करने से प्रभु पंचब्रह्ममय कहे जाते हैं, या अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधु ऐसे पंचब्रह्मों से प्रभु निष्पन्न हैं क्योंकि वे पचपरमेष्ठियों के गुणों से युक्त हैं।
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शिवः = शेते परमानंदपदे तिष्ठतीति शिवः, उक्तं चशिवं परमकल्याणं निर्वाणं शांतमक्षयं । प्राप्तं मुक्तिपदं येन स शिवः परिकीर्त्तितः ॥
जो परमानंद पद में स्थिर रहता है, वह शिव हैं। कहा भी हैं- जो परमकल्याणरूप, शान्तियुक्त और क्षयरहित सदा विद्यमान तथा संसारदुखों से रहित तथा परमानन्दरूप मुक्तिस्थान जिसने प्राप्त किया वह शिव है, ऐसी अवस्था को जिनराज प्राप्त हुए हैं, और भी
प्राणश्च क्षुत्पिपासे द्वे मनसः शोकमोहने । जन्ममृत्यू शरीरस्य स षड्भी रहितः शिवः ॥
अर्थ : क्षुधा, प्यास ये दो प्राणों के भेद, मन के शोक और मोह तथा शरीर के जन्म और मृत्यु इस प्रकार छहों से रहित जो सुखमय अवस्था प्राप्त होती है, उसे शिव कहते हैं। परः = पिपर्ति, पालयति, पूरयति लोकान् निर्वाणपदे स्थापयतीति परः अच् = जो लोगों को गुणों से पूर्ण करता है, पालन करता है, रक्षण करता है तथा निर्वाणपद में स्थापित करता है, उसे पर कहते हैं।
परतरः = परस्मात् सिद्धात् उत्कृष्टतरः परतरः सर्वेषां धर्मोपदेशने गुरुत्वात् = पर याने उत्कृष्ट जो सिद्ध हैं और वे सिद्धों से भी उत्कृष्ट हैं, क्योंकि सर्व जनता को धर्मोपदेश देने से वे गुरु हैं, अतः परतर हैं।
सूक्ष्म: = सूक्ष्मो न लक्ष्यो दृशां इति वचनात् सूक्ष्मो इति भण्यते, सूक्ष्मातीन्द्रिय केवलज्ञान विषयत्वात् सूक्ष्मो भण्यते = आप इन्द्रियों से नहीं जाने जाते हैं, अलक्ष्य हैं, अगोचर हैं, अतः सूक्ष्म हैं, तथा अतीन्द्रिय केवलज्ञान का विषय हैं, इसलिए प्रभु सूक्ष्म हैं।
परमेष्ठी = परमे उत्कृष्टे इन्द्रधरणेन्द्रनरेन्द्र गणेन्द्रादिपदे तिष्ठतीति परमेष्ठी