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* जिनसहस्रनाम टीका - २५ * विभावसुरसंभूष्णुः स्वयंभूष्णुः पुरातनः। परमात्मा परंज्योतिस्त्रिजगत्परमेश्वरः ॥१२॥
अर्थ : विभावसु, असंभूष्णु, स्वयम्भूष्णु, पुरातन, परमात्म्म, परंज्योति, त्रिजगत्परमेश्वर, थे जिनदेव के नाम हैं।
__विभावसुः = कर्मेन्धन दहन कारत्वात् विभावसु: आग्नरूप:- विमावतु को अग्निरूप माना, प्रभु आप विभावसु हैं क्योंकि कर्मरूप ईंधन के दहनकारी अर्थात् जलाने वाले होने से । मोहान्धकारविघटनपटुत्वात् विभावसुः सूर्यः = विभावसु याने सूर्य है क्योंकि आप मोहान्धकार का नाश करने में चतुर हैं अतः विभावसु हैं । लोकलोचनामृतवर्षित्वाद्विभावसुश्चंद्रः = संसार में लोगों की आँखों में अमृत बरसाने वाले होने से चन्द्रमा हो इसलिए विभावसु हो । कर्मसृष्टिप्रलय कारित्वाद् विभावसुः रुद्रः = कर्मरूप सृष्टि के विनाश करने वाले होने से विभावसु रुद्र हैं । आत्मकर्मबंधसंधि भेदकत्वाद्विभावसुः भेदज्ञानरूपः = आत्मा और कर्मबंध की संधि तोड़ने के लिए जिनपति भेदज्ञानरूप हैं। विभा - विशिष्टं वसु - तेजो धनं यस्य स विभावसुः केवलज्ञानधनमित्यर्थः = विशिष्ट तेज ही वसु धन जिनदेव का है, अर्थात् प्रभु केवलज्ञान धन के धारक हैं। विशिष्टया भया दीप्त्या युक्तानि वसूनि रत्नानि सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्राणि यस्य स विभावसुः विशिष्ट कांति युक्त वसु रत्नों के धारक प्रभु हैं। वा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप धन के धारक होने से आप विभावसु हो । विभा विगत-तेजस्का आ समन्तात् वसवो देवविशेषाः यस्य स विभावसुः = जिनदेव ने वसुनामक देवविशेष को विभा नष्ट तेजस्क किया है। यादृशो घाति क्षयजस्तेजःसमूहो भगवति वर्त्तते न तादृशो देवेषु वर्त्तते इत्यर्थः = घातिकर्म के क्षय से जो तेजसमूह आपने प्राप्त किया है वैसा तेज देवों में नहीं है, अत: प्रभु विभावसु हैं। अथवा विशिष्टां भां दीप्ति अवति रक्षति विभावा ईदृशी सूर्जननी यस्य स विभावसुः "पुंवद् भाषित पुस्कानृङ् पूरण्यादिषु स्त्रियां तुल्याधिकरणे" इति विभावशब्दस्य पुंवद्भावत्वात् हुस्वत्वं = अथवा विशिष्ट 'भा' दीप्ति कान्ति की जो रक्षा करता है ऐसी सूर्जननी जिसकी है - वह विभावसु कहलाता है अर्थात् जिसकी दीप्ति निरंतर सुरक्षित रहती है।