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* जिनसहस्रनाम टीका २६
अथवा विभावं रागद्वेषमोहादिपरिणामं स्यति विनाशयतीति-विभावसुः षोऽन्तकर्मणि । इति धातुः सर्व धातुभ्यः उः आलोपो ऽसार्वधातुके विभावों को अर्थात् रागद्वेषमोहादि परिणामों को भगवन्त ने स्यति नष्ट कर दिया इसलिए
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विभावसु हैं ।
असंभूष्णुः = न संभवतीत्येवंशील असंभूष्णुः नोत्पद्यते संसारे इत्यर्थः = भगवान जिनेन्द्र पुनः संसार में नहीं उत्पन्न होंगे, क्योंकि जन्मजरामरणादि दशाओं के उत्पादक कर्मों का नाश उन्होंने किया है।
स्वयंभूष्णुः = स्वयं स्वयमेव भवत्येवंशीलः स्वयंभूष्णुः, जिभुवोष्णुक् स्वयं ही कर्मों का नाश करके निजशुद्ध स्वरूप को उन्होंने प्राप्त किया है।
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पुरातनः = पुरा पूर्वं युगादौ भवः संजातः पुरातनः पुरा पूर्वयुग के आदि में उत्पन्न हुए थे इसलिए वे पुरातन हैं। प्रत्येक तीर्थंकर का जो धर्म प्रवर्तन हुआ उसको युग कहते हैं ऐसे युग चौबीस हुए हैं, अपने-अपने युग के निर्माता होने से चौबीस तीर्थंकरों को भी पुरातन कह सकते हैं।
परमात्मा = परम उत्कृष्टः केवलज्ञानी आत्मा जीवो यस्य स परमात्मा, तथाचोक्तं परमात्मप्रकाशे परम उत्कृष्ट केवल ज्ञानी आत्मा जिसकी हो वह परमात्मा है।
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तिहुयण वंदिउ सिद्धिगउ हरिहर झायहिं जो जि । लक्ख्नु अलक्खें धरिव थिरु मुणि परमप्पउ सो जि ॥ ९८ ॥
परमात्मप्रकाश में लिखा है कि तीन लोक में वन्दनीय, सिद्ध गति को प्राप्त, हरिहरादि के द्वारा ध्यान करने योग्य, जो लोक और अलोक को देखता है, उसको मुनि परमात्मा कहते हैं ।
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परमज्योतिः = परमं उत्कृष्टं ज्योतिः चक्षुः प्रायः परंज्योतिः लोकलोचनत्वात् = जिनेन्द्र भगवान उत्कृष्ट ज्योति युक्त नेत्र के समान हैं क्योंकि उनका केवलज्ञान लोक तथा अलोक का स्वरूप अबाधित रूप से देखता है।
त्रिजगत्परमेश्वरः = त्रयाणां जगतां परम उत्कृष्ट ईश्वर: स्वामी त्रिजगत्परमेश्वरः अथवा त्रिजगतां परा उत्कृष्टा मा लक्ष्मी:, तस्या ईश्वर: स