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* जिनसहस्रनाम टीका - १८* विजयी = विशिष्ट जय को प्राप्त करना उसे विजय कहते हैं, मुक्तिपुरी में गमन करना उसे विजय कहते हैं, ऐसी विजय प्रभ को प्राप्त हुई. इसलिए उन्हें विजयी कहते हैं, मोहादि कर्मों पर प्रभु ने विशिष्ट विजय प्राप्त की अत: उन्हें विजयी
कहा।
जेता = जयति सर्वोत्कर्षेण प्रवर्तते इत्येवंशीलो जेता = जिसने सर्वोत्कर्षरूप जय प्राप्त किया उसे जेता कहते हैं, प्रभु सर्वोत्कर्षयुक्त विजयी हैं, अत: जेता है।
धर्मचक्री = धर्मेणोपलक्षितं चक्रं धर्मचक्रं, धर्मचक्रं विद्यते यस्य स धर्मचक्री, भगवान् पृथ्वीस्थितो भव्यजन संबोधनार्थं यदा विहारं करोति तदा धर्मचक्रं स्वामिनः सेनायाः अग्रेऽग्रे निराधारं आकाशे चलति = प्रभु भव्यों को हितोपदेश देने के लिए विहार करते हैं, इसको सूचित करने वाला जो चक्र उसे धर्मचक्र कहते हैं, इससे युक्त प्रभु को धर्मचक्री कहते हैं। जब भगवान पृथ्वी पर स्थित प्राणियों के संबोधन के लिए विहार करते हैं, तब उन स्वामी की सेना के आगे-आगे निराधार आकाश में चलता है। इस धर्मचक्र का लक्षण आचार्य देवनंदी ऐसा कहते हैं -
स्फुरदरसहस्ररुचिरं विमलमहारलकिरणनिकरपरीतम्। प्रहसित सहस्र किरणद्युतिमण्डलमग्रगामि धर्मसुचक्रम् ।।
अर्थ - यह धर्मचक्र चमकते हुए हजार आरों से सुशोभित है, निर्मल अमूल्यरत्नों के किरण समूह से वेष्टित रहता है और मानों सूर्य के कांतिमण्डल को हँसता हुआ ही(तिरस्कृत करता हुआ) प्रभु के आगे-आगे गमन करता है।
दयाध्वजः = दया ध्वजः पताका यस्य स दयाध्वजः अथवा दयाया अध्वनि मार्गे जायते योगिनां प्रत्यक्षो भवति स दयाध्वजः = दया ही जिसकी ध्वजा पताका है, या दया के मार्ग में जो प्रकट होता है, अर्थात् योगियों को प्रत्यक्ष होता है, उसे दयाध्वज कहते हैं।
प्रशान्तारिरनन्तात्मा योगी योगीश्वरार्चितः। ब्रह्मविद् ब्रह्मतत्त्वज्ञो ब्रह्मोद्याविद्यतीश्वरः॥९॥