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* जिनसहस्रनाम टीका २०
ब्रह्मोद्यावित् = वद् व्यक्तायां वाचि । वद् ब्रह्मन्पूर्वः ब्रह्मणः उच्यते कथ्यते या कथा सा ब्रह्मोद्या नाम्नि वक्विप् प्रत्ययः । स्वपिवचियजादीनाम् य परोक्षाशी: षु संप्रसारणं । उद्व्यंजनमस्वरं परवर्णं नयेत् । उद्यजातं लिंगान्तनकारस्येति नकारलोपः । उवर्णे ओ । ब्रह्मद्यास्त्रियामादा, ब्रह्मोद्याजातां ब्रह्मोद्यां ब्रह्मविद्यां आत्मविद्यामिति वा वेत्तीति ब्रह्मोद्यावित् =
वद् धातु स्पष्ट बोलने में आती है। स्पष्ट ब्रह्मण पूर्व ब्रह्मण कहलाता है । उस ब्रह्म की कथा है वा परम ब्रह्म का जो स्वरूप है उसको ब्रह्मोद्या कहते हैं। इस ब्रह्मोद्या नाम में वद् धातुसे क्विप् प्रत्यय हुआ है तथा "स्वपिर्वाचि यज्ञादीनां यण परीक्षाशिःषु तंप्रसारणं" स्वपि वांचे यज्ञवाची शब्दों (धातुओं) का परोक्ष, आशी क्रिया अर्थ में 'यण' संप्रसारण होता है अर्थात् यण इ-का, र, और लृ का ल हो जाता है। इस सूत्र से यहाँ पर के व का उ संप्रसारण हुआ है।
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य, व = का उ, ऋ 'वद्' धातु
ब्रह्मन् शब्द में जो न् है उस नकार का लोप हो जाता है। "लिंगान्तनकारस्य लोपः " इस सूत्र से । तदनन्तर " उवर्णे ओ" इस सूत्र से उ ओ को प्राप्त होता है । अत: ब्रह्मोद्या = अर्थात् ब्रह्म परमात्मा का कथन करने वाला ज्ञान वा विद्य। स्त्रीलिंग में आकार होने से ब्रह्मोद्या इस शब्द की निष्पत्ति हुई है। उस ब्रह्मविद्या आत्मस्वरूप का जानने वाला, अनुभव करने वाला ब्रह्मोद्यावित कहलाता है।
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यतीश्वरः = यतन्ते यत्नं कुर्वन्ति रत्नत्रये इति यतयः सर्वधातुभ्यः इ: । एतेषामीश्वर: स्वामी यतीश्वरः = जो रत्नत्रय में यत्न करते हैं उन्हें यति कहते हैं, यत् धातु यत्न अर्थ में आती है और उसमें 'इ' प्रत्यय लगाने से यति बनता है और जो यतियों के ईश्वर हैं उन्हें यतीश्वर कहते हैं।
सिद्धो बुद्धः प्रबुद्धात्मा सिद्धार्थः सिद्धशासनः । सिद्धसिद्धान्तविद् ध्येयः सिद्धसाध्यो जगद्धितः ॥ १० ॥
अर्थ : सिद्ध, बुद्ध, प्रबुद्धात्मा, सिद्धार्थ, सिद्धशासन, सिद्धसिद्धान्तविद्, ध्येय, सिद्धसाध्य, जगहित ॥ १० ॥