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* जिननाम टीका - १३*
सम्पूर्ण भूतवर्ग याने प्राणी समूह के जो ईश हैं, उन्हें विश्वभूतेश कहते हैं । विश्वभूस्त्रैलोक्यं तस्य ता लक्ष्मीस्तस्या ईशः विश्वभूतेश: विश्वभू याने त्रैलोक्य उसकी जो ता = लक्ष्मी, उसके जो ईश हैं वे विश्वभूतेश हैं।
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विश्वज्योतिः = विश्वस्मिन् लोकेऽलोके च ज्योतिः केवलज्ञानदर्शनलक्षणं ज्योतिर्लोचनं यस्येति विश्वज्योतिः। विश्वस्य लोकस्य ज्योतिश्चक्षः विश्वज्योति: । लोकलोचनमित्यर्थः । इस लोक में तथा अलोक में जो ज्योतिः केवलज्ञान दर्शन लक्षग्मा ज्योतिः नयन जिनके हैं वे विश्वज्योति हैं अथवा लोकालोक के लिए ज्योति: नयनस्वरूप जिनेश्वर हैं
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अनीश्वरः = न विद्यते ईश्वर: एतस्मादपर: स अनीश्वरः = जिससे जगत् में दूसरा कोई ईश्वर नहीं उन्हें अनीश्वर कहते हैं।
जिनो जिष्णुरमेयात्मा विश्वरीशो जगत्पतिः । अनन्तजिदचिन्त्यात्मा भव्यबन्धुरबन्धनः ॥ ६ ॥
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जिनः = जिजये जयति कर्मारातीन इति जिन: "इणजिकृषिभ्यो नक् तथा चोक्तं द्रव्यसंग्रहटीकायां काम क्रोधादि दोष जयेन, अनन्तज्ञानादिगुणसहितो जिनो भण्यते = जिन धातु का अर्थ जय प्राप्त करना है, जिसने कर्मरिपुओं को जीत लिया है, उसको जिन कहते हैं, इसी अभिप्रायको द्रव्यसंग्रहटीका में लिखा है काम-क्रोधादिदोषों को जीतने से अनन्त ज्ञानादिगुणसहित जो हो गया वह जिन कहा जाता है ।
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जिष्णुः = जयति सर्वोत्कर्षेण प्रवर्तते इत्येवंशीलो जिष्णुः जो सर्वोत्कृष्टता को प्राप्त हुआ है ऐसे जिनप्रभु को जिष्णु कहते हैं । अमेयात्मा = अत् धातुः सातत्यगमनेऽर्थे वर्तते । गमनशब्देनात्र ज्ञानं भण्यते, सर्वे गत्यर्थाः ज्ञानार्थाः इति वचनात् । तेन कारणेन यथासंभवं ज्ञानसुखादिगुणेष्वासमन्तात् अतति वर्त्तते यः स आत्मा भण्यते । आत्मा शब्द अत् धातु से उत्पन्न हुआ है । सतत गमन करना, यह अत् धातु का अर्थ है। यहाँ गमन शब्द ज्ञानवाचक मानना चाहिए, क्योंकि सर्वे गत्यर्थाः ज्ञानार्थाः ऐसा वचन है, इसलिए यथासंभव ज्ञान, दर्शन, सुख, शक्ति, आदिक गुणों में आसमन्तात् चारों तरफ से जो सतत गमन करता है, वह आत्मा कहा जाता है। शुभाशुभमनोवचनकायव्यापारो
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