________________
* जिनसहस्रनाम टीका - १२%* षु, स्तु, द्रु, द्र, छु, गम, शपृ, गम्तृ धातु गमन अर्थ में है और गम्लु का गच्छ आदेश होता है, गच्छ गच्छ यह द्वितीय हुआ। उसमें अभ्यास में आदि अक्षर का लोप हो जाता है इससे 'ग' का लोप होता है। ‘च्छ' सयोगी का लोप होकर (च) का तीसरा अक्षर हो जाता है अत; जगत् शब्द की उत्पत्ति होती है।
विश्वमूर्तिः = विश्वं जगत् मूर्ती शरीरे यस्य स विश्वमूर्तिः - विश्व जगत् है शरीर में जिसके वह विश्व मूर्ति । विश्वेन समस्तभुवनेनोपलक्षिता मूर्तिः शरीरं यस्य स विश्वमूर्तिः = विश्व से समस्त जगत से व्याप्त शरीर या मूर्ति जिसकी अतः हे प्रभु ! आपको विश्वमूर्ति कहते हैं। अत: जब जिनेश्वर लोकपूरण समुद्घात करते हैं तब तैजस, कार्माण और औदारिक देह कर्म के साथ उनके आत्मप्रदेश समस्त जगत् में व्याप्त होते हैं, ऐसे समय में प्रभु का विश्वमूर्ति नाम चरितार्थ हो जाता है।
जिनेश्वरः = अनेक विषमभवगहन व्यसन प्रापणहेतून, करितीन् जयति क्षयं नयति इति जिनं = संसार रूपी जंगल में अत्यन्त तीव्र कष्टों के कारण रूप कर्म रूपी शत्रुओं को जो जीतता है या उनका क्षय करता है वह जिन कहा जाता है।
एकदेशेन समस्तभावेन वा कारातीन् जितवन्तो जिनाः । सम्यग्दृष्टयः श्रावकाः प्रमत्तसंयत्ताः, अप्रमत्ताः, अपूर्वकरणाः, अनिवृत्तिकरणाः सूक्ष्मसाम्परायाः, उपशान्तकषायाः, क्षीणकषायाश्च जिन शब्देनोच्यन्ते, तेषामीश्वरः स्वामी जिनेश्वरः = एकदेश या सम्पूर्णतया कर्मशत्रुओं को जिन्होंने जीता है उन्हें जिन कहते हैं, सम्यग्दृष्टि, श्रावक, प्रमत्तसंयत, अप्रमतसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसापराय, उपशान्तकषाय तथा क्षीणकषाय इन गुणस्थानवर्ती जो जन हैं वे जिन शब्द से वर्णित होते हैं, उनके जो ईश्वर, स्वामी उन्हें जिनेश्वर कहते हैं।
विश्वदृक् = विश्वं सर्वं पश्यतीति विश्वदृक् = सम्पूर्ण विश्व को जो देखते हैं, उन्हें विश्वदृक् कहते हैं।
विश्वभूतेशः = विश्वेषां भूतानां प्राणिवर्गाणामीश: स्वामी विश्वभूतेश: