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साधु की हठ
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पर किसी काम में नहीं लगता। जैसे भीतर से कुछ सुख नहीं मिल रहा हो, और मन जैसे सुख के अभाव, भीतर के इस अभावमय शून्य ( void) के चारों ओर ही मँडरा रहा हो। उसे व्यस्त रखना कठिन है, और वह व्यस्तता चाहता है । व्यस्तता ढूँढने में और कुछ नहीं, तो वह ऐसे बहाने पा और बना लेना चाहता है कि जिनके कारण फिर नशा चढ़ जाय । यह हालत होती है, जहाँ नशेबाज को फिर नशे की हिरस सताती है । गिरी तबीयत का सामना उससे नहीं किया जा सकता और फिर पहले की नशे की हालत के आमन्त्रण और आकर्षण में वह आँख मींच कर बह पड़ने को तैयार हो जाता है। दारोगा मानो अपने क्रोध के कारण ढूंढ रहे हैं। अपने को बहलाने को मन यह काम निकाल लेता है; क्योंकि क्रोध अन्तर में जो एक गहरा रिक्त छोड़ गया है, उसमें झाँकने में दर्द और डर होता है, और झाँक कर कुछ हाथ नहीं आता । यह भी नहीं हो सकता कि इस रिक्त के सम्बन्ध में चिन्तित न हों; क्योंकि कहीं रिक्त क़ायम रहने देने की छूट प्रकृति ने अपने नियम में नहीं रखी है। यह काम यत्नपूर्वक, जान-बूझकर करने की उनमें क्षमता नहीं है । इससे सस्ते नशे में फँसकर इस खालीपन के भाव (Consciousness) से त्राण पाने की ओर स्वभावतः उनकी वृत्ति हुई है । उन्हें अपने बचाव करने की आवश्यकता होती है; क्योंकि एक तरह का असन्तोष उन्हें अपने आपको दोषी मनवाना चाहता है । वह इसके विरोध में तर्क दूँढते हैं, और इस निश्चय पर आ जाना चाहते हैं, कि जो किया उसमें कोई हर्ज नहीं है । जो असन्तोष भीतर से रोष बनता हुआ-सा उठता है, उसकी चोट आप ही अपने ऊपर नहीं लगने देना चाहते, बुद्धि के ज़ोर से उसे मोड़कर साधु और अपनी पत्नी के ऊपर ढाल देना चाहते हैं । इसमें कुछ कृत-कार्य होते हैं, कुछ असफल होते हैं, और इस द्वन्द्वावस्था से तन होते हैं । जैसे दो ओर से
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