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जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग ]
हम मानें, बुराई जिस में है, वह बुरा नहीं है। मेरी उस बात का अर्थ यही है। अच्छाई को भी मनुष्य से इसी भाँति हम अलग करके समझें । तब हमारा लोगों में समभाव स्थिर हो । यह समझ कर चलें, तभी त्राण है। इसी से मैं 'सदाचार' का उपदेशक नहीं हूँ, विरोधी हूँ । क्योंकि, उस से दम्भ बढ़ता है। मैं समझता हूँ, मेरी बात आप की समझ में आ रही है ।"
कोई यह मानने को तैयार न था कि बात उनकी समझ में नहीं आ रही । और सब यह मान रहे थे कि बात समझ में आ रही हैं, और यह भी समझ में आ रहा है कि वह व्यर्थ है ।
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पर मेरे पास प्रतिष्ठा की कोई गठरी नहीं है, जिसकी रक्षा की मुझे चिन्ता रहे । मैंने कहा, "विनोद, मैं तुम्हें इस तरह की बात और न करने दूँगा, जिसका सिर नहीं दिखता, पैर नहीं दिखता, पर पेट ऐसा दीख पड़ता है कि उसमें दुनिया खो जाय । तुम जब कहानियाँ कह सकते हो, फिर ऐसी वाहियात बातें क्यों ले बैठते हो ? और.."
विनोद ने कहा, "एक दिन मैं..."
अब हमारे जी में जी आया, और टाँग फैलाकर, अपनीअपनी कुर्सियों में सँभलकर हम बैठ रहे ।
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विनोद ने कहा
" एक दिन मैं फिर विद्याधर के यहाँ जाने की जरूरत में पड़ गया । मित्र विद्याधर को आप न जानते होंगे । आपकी लाइन की कोई लियाकत उसमें नहीं है कि आप उसे जानें । विद्याधर सर्वथा साधारण है । एक सभा के दफ्तर में क्लर्क है। और मुश्किल यह
है कि बरसों बरस अपनी निज की चेष्टा से हमारी सम्भ्रान्त श्रेणी
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से विच्छिन्न होकर वह साधारण बना है। खैर, कुछ हो, मेरे लिए