Book Title: Jainendra Kahani 06
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 229
________________ २२० जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] दिया कि आँखें खुल आई । हम अँधियारे में सोते पड़े थे। स्यामी जी ने ऐसा जगाया, कि जनम-जनम जस मानेंगे। " पन्द्रह रुपये मासिक पाकर इस सभा का वह निकम्मा उपदेशक स्वामी, जो गाँव-गाँव उपदेश देता डोलता है और जो किसी ओर से कुछ नहीं है; नितान्त बिना पेंदी, बिना सिर है, और जो पेटही-पेट है; उसी अकर्मण्य का यह गँवार जस गा रहा है ! मैंने अपना माथा ठोक लिया। पूछा, "तो बैठे कैसे हो ?" उसने कहा, "जी स्यामी तो हैं नहीं। बैठा था कि इन बाबूजी को फुर्सत हो तो कहूँ, कुछ ज्ञान का उपदेस सुना दें।" मैंने कहा, "इनको तो फुर्सत नहीं हो सकेगी! और यह उपदेश भी नहीं सुनाया करते।" वह बोला, "हाँ जी, उपदेस तो बस स्यामी जी देते हैं । चित परफुल्लित हो जाता है । पर, हम जैसों को इनका ही बहुत है"और, सोई, मैं देख रहा हूँ. बाबूजी को फुरसत नहीं होगी। और मैं चुप बैट्ठा हूँ, कुछ कह नहीं रहा हूँ।" मैंने कहा, "तो फिजूल क्यों बैठते हो ?" वह अपराधी की भाँति त्रस्त हो उठा । ".. 'जी, मैंने पूछ ली थी, हरज तो नहीं कर रहा हूँ । हरज कर रहा होऊँ, तो मैं अभी उठकर चला जाता हूँ। मैं तो यों ही बैठा था, बैट्ठा, सान्ती की बात कुछ सोच रहा था ।" मैंने कहा, "हरज की बात नहीं, तुम्हारा वक्त भी तो खराव होता है । तुमको और भी तो दस काम होंगे । गाँव वाले बेकाम नहीं होते।" ____उसने कहा, "बखत तो, जी, यहाँ मेरा अच्छा होता है । खराब गाम में होता है, ऐसा खराब होता है कि जी, हप्ते-के-हप्ते यहीं आ कर बैठ जाया करूँगा और, काम तो लगा ही रहता है । जहाँ पेट

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