Book Title: Jainendra Kahani 06
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 233
________________ २२४ जैनेन्द्र की कहानियां [छठा भाग] कहा ? उस विद्याधर से तुमने तुमने ! यह कहा ? सच बोलो ? यह सच कहा?" विनोद ने अपनी वही विनोदशोल दृष्टि हम-सब लोगों के ऊपर उठा कर हमें देखा। बोला," हाँ, विद्याधर से ही यह कहा । क्या और किसी से कह सकता था ? कह सकता हूँ ? और क्या विद्याधर से झूठ कह सकता हूँ ?...तुम मुझे विनोद जानते हो । विनोद हूँ, पर आदमी हूँ।" - और मैंने विद्याधर से कहा, "नहीं मैं न मरूँगा। और कोई इस तरह का काम नहीं करूँगा। यही तो है आशा के शव को जी में लिये रह कर जिऊँगा, तब-तक जब-तक कि या तो उस शव में साँस चल आये, या उसे दाह कर भस्म कर दूँ ।...लेकिन अभी मैं भी न कहूँगा, तुम भी न सुनोगे । हमारे बीच में राह काटकर यह गँवार आ निकला है। इसको अपनी राह ते करते हुए हमारे बीच में से निकल जाने दो। तब तुम सुनोगे, और तब मैं कहूँगा। अभी तो, विद्याधर, मैं जाता हूँ। वह आदमी लौटकर फिर तुम्हें मिलेगा । उसकी बात मैं जानना चाहता हूँ। हो तो मिलना। तुम तो कभी घर आते नहीं। शायद ही कहीं जाते होगे। तुम ऐसे ही बने हो । मैं तुम पर ईर्ष्या करता हूँ, विद्याधर, ईर्ष्या । तो, तुम नहीं पाओगे ? खैर, मैं ही आऊँगा।" विद्याधर ने कहा, "विनोद, बहुत ठीक हुआ है कि बीच में वह आदमी पाया है। मैं कहता हूँ, उसके भीतर भी कहीं गहरा चीरा लगा है। पर; उसका दर्द तुम से भिन्न है। वह खिंचना नहीं, मुड़ना चाहता है। दुनिया में ऐसा ही है। कोई अफरा है, कोई भूखा है । एक को चूरन चाहिए दूसरे को नाज के दर्शन नहीं। पर, विनोद, वक्त बड़ी चीज है । उसका नाम काल है, पर अमृत भी कोई और नहीं है । काल अमृत है। अपनी राह जाये जाओ, दिन आने-जाने दो और बीतते जाने दो,-गहरे-से-गहरा घाव

Loading...

Page Navigation
1 ... 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244