Book Title: Jainendra Kahani 06
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 237
________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग ] तब पुनिया उठी और धीमे-धीमे डग डग बढ़ी | उस घर में ताला डाल कर, बिना कुछ कहे सुने, चुप पुनिया के पीछे-पीछे वह अपने घर आ गया। लोगों में सन्नाटा रहा। दोनों घर पहुँच गये, तब सबके मुँह खुल पड़े। इसको दस साल हो गये हैं । । २२८ और, और फिर क्या हुआ ? एक बालक भी हुका, जो मर गया। पर जो हुआ, वह कहता है, पुनिया का दोष नहीं है । अपने स्वर्ग को और परलोक को बन्धक रखकर, हा हा खाकर, कहता है, पुनिया का दोष नहीं है। पशु वही है, वही है ! उसने प्रतिज्ञा की है । कर-कर के हार चुका है, पर कौन भागवान दिन है जब वह नहीं टूटती । कहता है, मैं क्या करूँ, मैं सब कुछ करके हार बैठा हूँ, पर उसे सामने पाता हूँ तो सब भूल जाता हूँ। और कहता है, वह ऐसी सती है कि सतजुग में भी एक ही थी । ... पुनिया तो पुण्य की प्रतिमा है। पर, हाय, जाने उसको, उसको खुद को, क्या हो जाता है कि और प्रतिज्ञा कायम न रख सकने के साथ यह भी उसके भीतर कसक है कि वह पुनिया को जीत नहीं सका है । पुनिया उसके साथ सब-कुछ में से गुजर कर सदा निर्विकार ही रहती आई है। कभी भी उद्विग्न, अवश, बेकाबू, मोहापन्न, लोमहर्ष, नहीं हो उठी । विनोद, इसलिए यह सौ रुपया मासिक का दान है, और मंगल पर्व का व्रत है । विनोद, इस तरह आदमी चलता है !" : ५ : विनोद ने कहा, "इसलिए मैं कहता हूँ हम सावधान रहें, क्या अच्छा, क्या बुरा ?" मैंने कहा, “विनोद, उस गँवार की कहानी हुई, और दूर

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