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२२६ जैनेन्द्र की कहानियां [छठा भाग] झता हूँ, प्रति मङ्गलवार को आया करेगा। उसने एक प्रतिज्ञा ली है । प्रतिदिन उसे दोहराता है और लगभग प्रतिदिन उसे तोड़ता भी है। अभागा उसी त्रास में सान्त्वना खोजता मङ्गलवार को मेरे दफ्तर में आकर बैठा करेगा और हर दूसरे मङ्गलवार को दान के पचास रुपये लाया करेगा । विनोद, तुम कुछ समझ सकते हो?" ___ मैं कुछ भी नहीं समझ सका।
विद्यावर ने कहा, "अपने गाँव का पाँच आने हिस्से का वह जमींदार है । धर्म की ओर उसकी रुचि रही है । जलसे-सभाओं में हिस्सा लेता रहा है । पैंतीस वर्ष की अवस्था से विधुर है। लड़का उसका तब आठ वर्ष का था। अब वह उन्नीस वर्ष का है। बस एक साल बाद की बात है :
गाँव में एक पुनिया रहती थी। अच्छे चलन की वह नहीं समझी जाती थी। इस आदमी का उससे दूर का कुछ नाता भी था । बचपन से विधवा थी, औरों की वह सुनी-अनसुनी कर देती थी, इसकी कहन उसे सालती थी। वह इज्जत करती थी तो इसी आदमी की। औरों से भरी-राह रार करते उसे कुछ नहीं होता था। इसके सामने आँख ऊपर उठाना भारी हो जाता था। ___ एक दिन किसी ने कुछ सुना था, या देखा था, या क्या, कि लोगों ने पुनिया के द्वार पर आकर खोल-खोलकर उसे खरी-खोटी सुनानी शुरू कर दी। वह तब भी सामने मुकाबले को निकल आई और बकने लगी। ___ इतने में यह आदमी उधर को निकला। हजूम देखकर उधर जो चला तो देखता है कि यहाँ यह हो रहा है !
सीधे पहुँच कर दो थप्पड़ पुनिया को जमाये । पुनिया मारे लाज के बिलकुल चुप हो गई। एक शब्द आगे मुँह से नहीं निकाल