________________
व' गंवार
२१५
मुझे यह अच्छा नहीं लगता। और नहीं, तो पाप-पुण्य पर ही खपो । यह तो नहीं कि कुछ काम की बात हो। न हो, एक लतीफा ही सही। __ मैंने कहा, "विनोद, छोड़ो इस झंझट को। न कोई अच्छा सही, न बुरा सही। फिर भी, अच्छाई-बुराई सही। जो कहो, माना । पर, विनोद, कोई मजे की चीज सुनाओ, कोई लतीफ़ा सुनाओ।"
विनोद-"कहानी ही सुनाता हूँ। उसी का यह सिर है । या कहो पूँछ है। आदमी एक ऐसा जानवर है जो बिना पूँछ है। इससे बिना-सिर हो वह, तो भी मुजायका नहीं । पर, कहानी वैसा जानवर नहीं ।"और, मैं फैशन नहीं जानता। फैशन जानने के लिए रुकना भी नहीं चाहता। हाँ, वह आप का अर्थ ? उसी अर्थ पर जोर देने का मेरा यत्न है। मैं चाहता हूँ, कुछ हो हमारे लिए जो हमें सदा अस्वीकार्य हो, एक निषेध का आधार, जिससे हमारा सम्बन्ध निषेध का, खण्डन का, युद्ध का ही हो । जिसके साथ समझौता हम किसी भी भाँति न करें। उसी को मैं कहता हूँ 'बुराई ।' फिर वह भी कुछ हमारे साथ हो जो सब युद्धों में हमारी टेक रहे। वही अच्छाई, वही सत्य । इस तरह सत्य को और असत्य को अत्यन्त स्वयंसिद्ध Positive बनाकर हम जीएँ । तब देखेंगे, हम सदा लड़ते ही चलते हैं। सत्य के प्रति निरन्तर लगन असत्य के प्रति निरपवाद अनसमझौते के भाव से हमें भरा रखती है। अब, मैं यह भी चाहता हूँ कि प्राणीमात्र के,-वस्तु-मात्र के साथ हमारा ऐक्य हो, प्रेम का सम्बन्ध हो । यहीं वह तुम्हारा अर्थ आता है। हम बुराई से सदा लड़ेंगे ही।
और कोई चारा नहीं है, कोई बचाव नहीं है। पर जिसमें बुराई है, इस कारण, क्या उससे प्रेम-भाव रखने से हम वञ्चित हो जायँ ? नहीं, इसकी इजाजत नहीं है । इसी से मैं कहता हूँ कि