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जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] विनोद यहाँ कुछ ठहरा, देखा, मानो कहा, "शङ्का हो तो करो, और निवारण करो, नहीं तो वह आगे बढ़े।"
हम सब सुन रहे थे। विनोद सबका विरोध लेने को तैयार होकर कभी ऐसी बातें कह उठता है जिन्हें समझने की हम कभी जरूरत नहीं समझते। न कहूँगा, वे अनसमझी की बातें हैं। ऐसा कहने में मेरी ओछी भी होगी। क्योंकि विनोद की विचारशीलता की उन पर धाक है, जिनकी मुझ पर धाक है । होगी उन पर धाक । अपनी वे जानें । जो करता है, हमें तो उस में कुछ लुक मिलता नहीं। पहले तो समझ नहीं पातीं। सौ में एक बात समझे भी तो बेमजा । सिर खपाओ तब समझो। और ऐसे समझने से क्या हाथ आये, पता नहीं। ___ हम में से एक ने पूछा, "विनोद यह क्या कह रहे हो ? जानते हैं, तुम बहुत जानते हो । पर बात सँभाल कर कहो।" ।
विनोद मुसकरा कर रह गया। मानों कहा, "सँभाल कर वह कहे जो सँभला न हो, या जिसे शङ्का हो।"
मित्र बोले, "तुमने कहा, वह दूसरे शब्दों में यह है कि आदमी में अच्छाई-बुराई है; पर, जिसमें अच्छाई है वह अच्छा नहीं; बुराई है, वह बुरा नहीं ! क्यों यही न ?"
और मित्र जोर से हँसे-अहहह
हमने देखा कि विनोद अब फँसा । उसे पता न होगा, बातों का जो झमेला-सा खड़ा कर रहा है, उन में आप ही फंसना होगा।
विनोद-"ठीक यही मैंने कहा ?"
मित्र जैसे हँसना चाह कर भी नहीं हँस सके । बोले, "फिर अच्छाई-बुराई आदमी के भीतर होने का मतलब ? और फिर बुराई दूर करके अच्छाई अपने भीतर लाने में सचेष्ट होने का अथे ? अच्छे-बुरे जब हम हो ही नहीं सकते, तो कहाँ का पापवाफ, छोड़ें सब झगड़े को।" . . .