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जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग ]
रहे हैं, उपकार कर रहे हैं, परिवर्तन कर रहे हैं, हम काम कर रहे हैं।'...
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अबके जोर से मेरा सिर पास रक्खे अपने बिस्तर के पुलिन्दे में लगा । खैर हुई कि ट्रक में नहीं लगा। ध्यान आया, दुनिया नयाली नहीं है, और यह बनारस का इक्का है और बनारस की सड़क है; इसलिए, स्नयाली जीव बनकर बैठूंगा इसमें, तो ख़ता खाऊँगा ।
मैंने कहा, “सम्भाल के क्यों नहीं चलाता रे, इक्का । और मैं, सम्भल सम्भाल, चौकन्ना हो बैठा ।"
देखता हूँ कि सड़क को पार करने की जल्दी नहीं है । इक्के के नीचे से गहरे चेचक के दाग से गड्ढों वाली यह बुढ़िया नाला सड़क बड़ी धीमी-धीमी चाल से खिसक रही है ।
मैंने कहा, "इका बढ़ाता है कि रेल निकालने की धुन में है ? रेल निकली कि फिर तू है, और मैं ।"
उसने घोड़े की पूँछ के पास हाथ लगाकर कहा, “होय, टिकटिक..."
मुझ से कहा, "बाबू, कहाँ जाव ?” मैंने खुशी से कहा, "दिल्ली । "
'दिल्ली !' और वह मुझे आँख फाड़कर देखने लगा, "बाबू, दिल्ली !” उसने समझा होगा, सोने से कम कीमती धातु तो क्या दिल्ली की सड़कों में लगी होगी, और पानी की जगह लोग इत्र पीते होंगे। दिल्ली के अचरज से उबरने पर पूछा, "बाबू, तुम्हारे इहाँ कहा रोजगार होत ऐ ?"
मैंने कहा, "चलो चलो, इक्का चलाओ ।"
इक्का चल ही रहा था, और चल पड़ा ।
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"बाबू, धिल्ली में मोगल के बादशाह रैत हते । वोई धिल्ली ! ar किल्ला ऐ ?"