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सजा
१८१ अय्यर ने कहा, "भाभी चाय तो रहने दो । पर कपड़े दो तो नहा लेना मैं ज़रूर चाहता हूँ।" __ भाभी ने कहा, "चाय नहीं लोगे तो कपड़े हो मैं क्यों देने लगी?" ___ कहकर विना उत्तर की प्रतीक्षा किये वह अन्दर चली गई
और थोड़ी देर में आकर बोली, "चलो सब तैयार है । गुसलखाना भूले तो नहीं कि मैं चलूँ ?" । __ अय्यर जाँघिए और बनियान में हमारी श्रीमती जी के पीछेपीछे चल दिए।
लौटे तब तक मेज़ पर चाय का सामान लाया जा रहा था। अय्यर ने कपड़े पहने और मैंने देखा कि मेरे कपड़ों में अय्यर पहले से कुछ दुरुस्त ही मालूम होता है। चाय पर बैठकर वह बहुतकुछ हीला-हवाला करता तो रहा, पर हमारी श्रीमती ने उसका कुफ्र तोड़कर ही दम लिया। यानी अय्यर के गरम दूध के प्याले में दो बूँद चाय तो डाल ही दी । अय्यर ने हँसकर उस प्याले को मुंह लगाया और गट-गट पी गया । कहा, "आप नाराज़ न हों तो ऐसा जहर-छुआ प्याला एक-आध मैं और ले सकता हूँ, अगर आप दें।"
मैं सुनकर कायल हुआ। मैं उस आदमी को गवारा नहीं कर सकता जिसे मजाक गवारा नहीं है। अय्यर की अविवाहित अवस्था को मैं इसीलिए क्षमा करता हूँ कि उसने मेरी श्रीमती को शुरू से 'भाभी' कहा, एक भी दिन 'बहिन जी' नहीं कहा।
मैंने कहा, "सुनो, जहर जरा कम रखने की ताकीद इन महात्मा से मिले, इससे पहले ही तुम अपनी ओर से उसे डालने में संकोच क्यों दिखाश्रो ?”
सचमुच इस बार श्रीमती जी ने श्राधा प्याला चाय का भर