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२०६ जनेन्द्र की कहानियां [छठा भाग] ___"लेकिन वह कौन होता है ? जानते नहीं, हिन्दुस्तान गुलाम है। तुम गुलामी करो, लेकिन, मैं आजाद होना चाहती हूँ।" ___मैंने कहा, "वह तो सब ठीक है । और गुलामी में मुझे भी बहुत सुख नहीं मिल रहा है । पर, अँगरेज़ है, इसलिए यह तो नहीं कि वह आदमी भी नहीं है । और आदमी को दया करने का कब अधिकार नहीं है ?"
"अच्छी दया है कि उसे मार दो!"
"और तुम्हारी अच्छी दया है कि उसे मरता हुआ रहने दो!" __ "तो जाओ न, तुम यह दया का काम करो। मेरा पीछा छोड़ो।"
और मुझको और ड्राफ्ट को छोड़कर वह चली गई । मेरी तबीयत, मर्द हूँ तो क्या, यह न हुई कि इस बार हारूँ, और उनको मनाऊँ । तब मैं वहीं बैठा-बैठा गहन तत्त्व की बात सोचने लगा-इस सृष्टि में क्या सार है, क्या असार है। तभी मैंने अपने मन में यह प्रतीति भर पाई कि यहाँ जो-जो असार है, सब पुरुष है, सारभूता बस स्त्री है। और मेरा यहाँ ठौर-ठिकाना तभी तक है, जब तक किन्हीं सारभूता का आश्रय मुझे नसीब है। सोचा चलू, कहूँ-“हे स्त्री, मुझे क्षमा कर,क्षमा तेरी शोभा है ! भूल मेरा काम है। हे स्त्री क्षमा कर, उठ, मुझे भोजन दे ! तेरे हाथ का भोजन पाने से ही मुझ में कुछ सार बना है, नहीं तो मैं निस्सार हूँ, नीरस हूँ।"
इसी विचार को सोच-सोचकर मैं श्री के पास जाने के लिए मन मजबूत कर रहा था। आप जानते हैं, विचार और कृत्य में सम्बन्ध भी है। किन्तु, सम्बन्ध पुष्ट होते-होते उनमें अभिन्नत्व स्थापित हो ही कि बाधा पड़ गई । वही अँगरेज सज्जन आ गये। आते ही पूछा, "वह आ गये ?"