Book Title: Jainendra Kahani 06
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 220
________________ हत्या २०६ मालूम नहीं कि किसी राह-पड़ी कंझट में पड़ कर उस वक्त को बता देना ग़लत है । मैं कहती हूँ - " सo - " मैं कहता हूँ, मित्र रुष्ट न होंगे। होंगे, तो हम उनसे क्षमाप्रार्थी हो लेंगे, और दुहरे निमन्त्रण दे लेंगे । किन्तु, प्रिय, क्या इन महाशय का अपने में उलझाना आवश्यक है ? ( मुझसे ) तमा कीजिएगा, हमारा मतभेद रहता है । मत भिन्नता ही क्या जीवन का स्वाद नहीं है ? पर, उसको लेकर शायद हम आपके लिए रुचि - कर नहीं हो रहे हैं। " मैं समझ सका, इन दोनों में इससे पहले भी विवाद होता रहा है, उसकी गर्मी में एक अपरिचित को उपस्थिति को ये हठात् भूलते और हठात् याद करते हैं। मैंने कहा, "नहीं-नहीं..." कुछ देर बाद सज्जन ने घड़ी की ओर देख कर कहा, - "देखिये, अभी वह नहीं आये। अब मेरा दोष नहीं है । अपने मित्र से कहियेगा, मेरा दोष नहीं है ।" मैंने प्रश्नवाचक भाव से उन्हें देखा । उन्होंने कहा, 66 मैं चला तो जा ही रहा हूँ । लेकिन यह ठीक नहीं । और मुझे उनकी रिपोर्ट जरूर करनी होगी ।" मैंने कहा, "क्या मैं एक बात कह सकता हूँ ? मित्र अनुपस्थित हैं, इसका कारण यह है कि घोड़ी के विषय की उनकी अन्तस्थ वेदना यहाँ रह कर उन्हें असह्य होती है ।" मित्र ने ध्यानपूर्वक मेरी बात को सुना, फिर कहा, " होगा । पर यह ठीक नहीं है ।” कह कर सज्जन अपनी सहधर्मिणी के साथ चले गये। मैं मोटर तक साथ गया । वहाँ से महिला ने कहा, " आपसे मिलकर हम सुखी है । धन्यवाद ।” वह गये और मैं निश्चिन्त हुआ । लौटा, तब भूल गया था

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