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२०८ जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग]
मैं-"यह दृष्टिबिन्दु की बात है। लेकिन, मुझे इजाजत दीजिए कि मैं निवेदन करूँ, आप तशरीफ रखें । यह कमरा है । कृपा होगी।" __स०-"नहीं-नहीं । यह तकलीफ़ क्यों? हम इतने अपनी गाड़ी में हैं । कुछ देर की तो बात है।"
किन्तु मेरा अनुरोध हार्दिक था, मैंने उसे ढीला न किया, और वह भी उसे टाल न सके। अपनी सहधर्मिणी को भी मोटर से ले.
आये । मेरा परिचय कराया, मैंने अपना नाम बता कर सहायता का।
. ___ महिला हँसी-"आपका नाम तो अजीब सुन पड़ता है । अच्छा लगता है। आपने इन्हें देखा ? मैं इनसे सहमत नहीं हूँ। मैं इनसे सहमत नहीं होती। मैं कहती हूँ, हर काम की ज़िम्मेदारी ले लेने वाले हम कौन है ? हमारे भाव हैं, तो दूसरे के भी कुछ भाव हैं । हम कौन हैं कि चाहें, हमारे भावों की रक्षा के लिए दूसरा अपने भावों का उत्सर्ग कर दे । अगर यह भावों की ही बात हो तो, लेकिन वह भी नहीं है।" ___ सजन ने असमन्जस में कहा, "महाशय, क्षमा कीजिए । हम सदा असहमत होते हैं। और आप क्षमा करें, अगर इसका तमाशा
आपके सामने किये बिना हम न रहें। मैं हारता हूँ और कहता हूँ, मेरे पास कोई तर्क नहीं है । लेकिन मैं जानता हूँ, मैं गलत नहीं हूँ।"
मैं-"मैं नहीं जानता..."
महिला-"और मैं जानती हूँ, यह ग़लत हैं। और मैं यह भी जानती हूँ कि यह जानते हैं, यह गलत हैं । कम-से-कम इन्हें जानना चाहिए। आपको मालूम नहीं, तीन बजे कुछ मित्र हमारे यहाँ निमन्त्रित हैं। और इनके कहने का मतलब यह है कि इनको