Book Title: Jainendra Kahani 06
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 221
________________ २१० जनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] कि मेरे और श्री के वीच कुछ गड़बड़ भी हुई है। भीतर पहुँच कर मैंने कहा, “कहिये साहब ?" बोली, "हाँ, मेम सा'ब से बड़ी घुट-घुट कर बातें की। रंग जो गोरा है.। मेम मिल ही जाती, तब पता चलता।" मैंने कहा, "और तुम क्या कम मेम हो। तुम काली मेम सही।" __ मतलब इसी तरह हमारे बीच में कुछ-न-कुछ हुआ। कुछ बिगाड़ न हो, तो सुधार क्या हो ? झगड़ा न हो, तो मेल का अवसर किधर से आये ? सो, खाने से पहले हम झगड़े न होते, तो खाने के बाद के हमारे मिलन में मिठास का ऐसा ज्वार किसी प्रकार बनकर न आ सकता । पर, बुरा हो भाग्य का, जिसे सुख सह्य नहीं है। उसी समय कहीं पास ही से बन्दूक का धड़ाका सुनाई दिया। मैं बाहर बरामदे में आया। देखता हूँ कि वही अँगरेज़ सज्जन धीरे-धीरे बरामदे की ओर ही बढ़ते आ रहे हैं । बन्दूक उनके हाथ में है। उनके आते ही मैंने पूछा, "आपने घोड़ी को मार दिया ? यह ठीक किया !" उन्होंने शान्त-भाव से जेब से सौ-सौ के दो नोट निकाल कर मेरे सामने मेज़ पर रख दिये। उसके बाद अपने नाम का कार्ड निकाला, और उस पर अपना पूरा पता लिखा। उसे भी मेरे सामने मेज पर रख दिया। कहा, "घोड़ी दो-सौ से ज्यादे की हो; तो आप मुझसे कहें। दो-सौ ये रखे हैं। मित्र से कहिये, वह चाहें, तो अदालत में जा सकते हैं। मेरा पूरा पता उस कार्ड पर है। उनसे यह भी कहिये कि मुझे उनकी रिपोर्ट करनी होगी। मेरी सफाई थोड़ी है। दस-बीस मील जाकर मैं लौट आया हूँ। मैं अपनी नींद हराम करना नहीं चाहता था। मैं आया, और मैंने इसे मार दिया। आप मित्र से कहियेगा, वह अदालत जा सकते हैं।"

Loading...

Page Navigation
1 ... 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244