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जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] मैंने पुकारा, "बज्जी, बज्जी!" बज्जी का पता नहीं था । मैंने पुकारा, "पगुई !” पगुई ने आकर बताया, "बज्जी अपनी जगह नहीं है।" मैंने पूछा, "बाबू कहाँ हैं ?" । श्री ने कहा, "अच्छा, चाय लाओ।"
पगुई झटपट करके चाय लाया और खबर दी, "श्रोवरसियर बाबू भी नहीं हैं।"
श्री ने पूछा, "कहाँ गये हैं ?" पगुई चुप खड़ा रहा। श्री ने जोर से कहा, "मालूम नहीं, हमें घूमने जाना है ?"
पगुई चुप रहा, और मैंने जब कहा, 'जात्रो', तब वह चला गया।
चाय बीच में लेकर मैंने परिस्थिति की आलोचना सुननी शुरू की। कहीं-कहीं इतस्ततः स्वयं भी योग दिया। पास हुआ कि कही बात पूरी न की जाय, तो ग़लती है, भारी ग़लती है, अपराध है । इसका क्या अर्थ होता है कि कोई आशा में रहे, और उसका समय खराब हो ? काम नहीं हो सकता है, तो क्यों नहीं वक्त पर साफ 'नहीं' कर दिया जाता । आखिर कहाँ है अब वह बज्जी, और क्या हुए ओवरसियर-साहब ?
मैंने कहना चाहा, "देखो भाई...”
किन्तु तत्क्षण मुझे मालूम हुआ कि मर्द आधिपत्य का प्रेमी है। यह भी मालूम हुआ कि वे दिन अब गये, और सत्य सत्य है,
और साँच को दुनिया में कहीं आँच नहीं है, और स्त्री पुरुष की दासी नहीं रहेगी, और...