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२०२ जैनेन्द्र की कहानियां [छठा भाग]
तभी चल कर मित्र मेरे पास आये। कहा, "चलो-चलो। यहाँ भीगने से क्या फायदा है।" और बाँह में हाथ डालकर वह मुझे ले चले।
राह में पूछा, "हाँ, चाय पी ली ?"
मैं देख सका, इस प्रश्न में उत्तर की अपेक्षा नहीं है। कुछ है भीतर, जिस तक मेरी निगाह न पहुँचने देने के लिए मानो यह प्रश्न मेरे सामने डाला गया है। जैसे इस प्रश्न का अन्तर डाल कर अपने मर्मस्थ दर्द को उन्होंने मुझ से दूर बना लेना चाहा है।
मैंने कहा, "हाँ, चाय तो पी ली।"
बोले, "पी ली ? अच्छा किया। तुम मेंह में भीगने क्यों वहाँ गये ? उसे कौन-सा अब जीना है ?"
मैंने पूछा, "आप क्या कीजियेगा ?" कुछ देर चुप रहकर उन्होंने पूछा, “क्या करूँ ?"
मैंने कहा, "वह अब जी तो सकती नहीं। गोली मार कर खत्म कीजिये।"
उन्होंने आँख उठाकर मुझे देखा। -"मार दूं ?"
मैंने बहुतेरा चाहा कि कह सकूँ 'हाँ'; पर उन उठी हुई और फिर झुकी हुई आँखों में मैंने जो देखा, उसके बाद किसी भाँति मेरे जी में यह साहस नहीं हुआ। ___ उन्होंने कहा, "नहीं, मुझसे नहीं होगा! ठीक क्या है, कौन जाने । पर, मुझसे नहीं बनेगा।"
मैंने कहा, "आखिर क्या कीजियेगा ?"
बोले, "क्या करूँ ? अभी तो यह जानता हूँ कि देखूगा, इलाज हो सकता है या नहीं।"
मैंने संदिग्ध स्वर में कहा, "इलाज हो सकता है ?" वह चुप रह गये।