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हत्या
२०१
__ मैंने मान लिया, "आधिपत्य की आदत ऐतिहासिक दुर्भाग्य से मेरी मज्जा-मज्जा में व्याप्त हो गई होगी, और मैं क्षमाप्रार्थी हूँ।" ___ इसी तरह की बातों के बीच में बज्जी आया, और खबर दी कि बाबूजी, घोड़ी की टाँग टूट गई है। अब मरी समझिये।
श्री सुनकर एक दम चिन्ताग्रस्त हो गई। मैं वज्जी के साथ मेंह में गया, और देखा, एक पेड़ के नीचे घोड़ी खड़ी है। उसकी अगली एक टाँग पुट्ठों पर से बिलकुल अलग हो गई है । बस, खाल के सहारे शरीर के साथ हिलगी हुई लटकी है। उसे अपार वेदना है । वह चल सकती नहीं, बैठ सकती नहीं। दोनों ओर आँखों से गाढ़े-गाढ़े आँसू निकल कर नीचे तक आ गये हैं। वे गीले मोम की लकीर की तरह वहाँ जमे हुए हैं । घाव से लहू रिस रहा है, और बहुते। बाहर आकर जम गया है । आसपास गोश्त के छिछड़े लटक रहे हैं । वहाँ मच्छरों, मक्खियों और भिनगों का अन्त नहीं। बिलकुल पानी में भीग रही है । सारी रात भीगती रही है। मालूम हुआ कि उसकी यह हालत उस बदमाश घोड़े ने की है। ___ मैंने देखा, पास ही एक ओर भीगते हुए मित्र खड़े हैं। बरसाती नहीं है, न छतरी है । गुम खड़े हैं । मुझे नहीं सूझा, कैसे उन्हें सम्बोधन करके कुछ कहूँ, विमूढ़ खड़ा रह गया।
उसी समय तीनों पैरों पर जोर डाल कर घोड़ी ने एक कदम बढ़ना चाहा । वह गिर भी पड़ती, तो उसे चैन मिलता । पर, उस टूटी टाँग को लेकर ढेर की तरह पड़ जाना तक भी उसके लिए सम्भव न रहा । ज्यों ही टूटी टाँग उसने धरती पर टेकी कि असह्य पीड़ा से उसकी सारी देह काँप गई, मुंह पर मूर्छा का भाव हो पाया, आँखों में सोत भर पाया और वह मुर्दा टाँग फिर डण्डे की तरह श्रधर लटक गई !