Book Title: Jainendra Kahani 06
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 209
________________ १९८ जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] यहाँ जो आते हैं, उनमें बालकों और महिलाओं से मेरी इच्छा रहती है कि वे इस पर अवश्य बैठें। आपकी पत्नी से भी मै यह कहने वाला था । जो सवारी करना जानते हैं, वे सवारी के अभिमान में भरे हुए जानवर की पीठ पर बैठते हैं। मानो वह खुद में एक जानवर न हों । इसलिये शायद आप से तो मैं न कहता। पर जो चढ़ना नहीं जानते उन्हें लगेगा, गोद तो नहीं, पर अवश्य यह माँ की ही पीठ है। मैं अपने लिये कभी उसे सवारी की पीठ नहीं समझता । एक तरह की सिंहासन की पीठ समझता हूँ। जब स्वयं मैं अपनी आँखों में उठना चाहता हूँ. तब मैं उस पर आसीन होता हूँ।..." उस समय मैंने श्री की इच्छा की बात कही। सुनकर मानो वह कृतार्थ हुए, और फिर व्यस्त-भाव से घोड़ी का वर्णन करने लगे। बताया, "कब कहाँ किस बालक के अचानक घोड़ी की पीठ से लुढ़क पड़ने पर कैसे वह एक-दम चारों पैर साध कर खड़ी हो गई थी; बच्चे को जरा चोट नहीं आने दी; कैसे किसी-किसी महिला की रक्षा के लिये बनले पशुओं का उसने सामना किया; कैसी वह समझदार है, कैसी चतुर, कैसी बावफा, कैसी आत्मी. यता, आदि आदि ।” फिर पुकारा, "बज्जी श्रो, बज्जी!" बज्जी लड़का उस घोड़ी का सेवक है । उसे दो-तीन बार समझा कर कहा, “देखो, सबेरे ही घोड़ी को तैयार करके लाना । बिलकुल सबेरे, देर न हो।" __ मित्र की आयु जीवन के दूसरे किनारे की ओर आ रही है। शरीर के साथ मन भी धीमा होता गया है । अब कम बातें रहती जा रही हैं, जिनमें उन्हें जीने का उत्साह अनुभव हो । संख्या में जितनी कम हैं, उतने ही वेग से वह उन्हें पकड़ते हैं। मानो उन्हों पर टिक कर वह रहते हैं। और मानो रह-रह कर वह टटोल लेते

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