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सज़ा
बाहर के बरामदे में वेंत की कुर्सी डाले सुहावनी रिम-झिम देख रहा था । पानी बन्द नहीं होता दीखता था। शायद यह झड़ी कई दिन चल जाय । कभी मेंह धीमा होता कि थोड़ी देर में फिर बौछारें तेजी पकड़ लेतीं । बरामदे के पौधे मैंने नौकर से हटवाकर पीछे रखवा दिए थे। वर्षा की बूंदों की अगवानी पर पहले तो उन पौधों की पत्तियाँ हँसती मालूम हुई, पर पीछे मारे बौछारों के बेचारी ठिठुरी-सी दीखने लगी थीं। __ऐसी झड़ी में देखता क्या हूँ कि चले आ रहे हैं मित्र अय्यर । अय्यर का भरोसा नहीं, बुलाते रहो तो शायद एक न सुनें, वैसे जाने कब आ धमकें। गाँव-गाँव घूमते हैं। बी० ए० में अव्वल दरजे में आने का प्रायश्चित्त जैसे जिन्दगी भर करते रहेंगे। प्रायश्चित्त का ढंग यह है कि बात-चीत या चाल-ढाल से किसी को पता न चलने देंगे कि वह अँगरेजी जानते हैं, और बोलेंगे एक-दम वाहियात हिन्दी । हिन्दुस्तान के काले किनारे, समझिए बस कुमारी अन्तरीप के कहीं आस-पास, के रहने वाले हैं। यहाँ दिल्ली में चर्वे को धरम बना कर उसी के प्रचार में लगे रहते हैं। मैं भले आदमी से कह-कह कर हार गया कि अरे भाई अय्यर ! क्यों
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