Book Title: Jainendra Kahani 06
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 200
________________ सज़ा १८६ कि मेरा-तुम्हारा साथ नहीं । हम भारत को दीन नहीं, सम्पन्न देखना चाहते हैं । तुम मुझे भावना में पड़कर दीनों का समकक्ष होने के लिए स्वयं दीन बनने को कहते हो। लेकिन यह भ्रम है। खुद सम्पन्न बनकर अपने उदाहरण से दीनों को सम्पन्न बनने का मार्ग दिखाना होगा । इन्डस्ट्रीयलाईजेशन-नहीं, इसके बिना उपाय नहीं।" ___अय्यर ने भी कुछ कहा । पर मुझे अपनी बात इसलिए याद हैं कि अब ठण्डक में देश और सिद्धान्त सम्बन्धी तब की अपनी गर्मी मुझे ही व्यंग मालूम होती है। सारांश, हम इसी तरह की जरूरी बातें कर रहे थे कि पास ही कहीं से धीमे-धीमे उठता हुआ शोर जोर पकड़ने लगा। कोलाहल इस तरह थप्पड़ की भाँति कानों पर पड़ने लगा कि मैं अपनी जगह से उठा, कहा, "देखू क्या मामला है ?" __ अन्दर पहुँच कर पहले सहन के पार दूसरा जो सहन है वहाँ देखता हूँ कि आठ-दस आदमियों की खासी भीड़-सी खड़ी हुई है । देखा तो आस-पास के नौकर-चाकर, पड़ोस का एक ताँगेवाला, एक दर्जी और एक पन्सारी, इसी तरह के कुछ लोग वहाँ जमा हैं। बीच में मिसरानी खड़ी पुकार-पुकार कर कह रही है कि उससे कसम ले लो, उसके सब मर जायँ, उसके बदन में कीड़े पड़ें जो उसने कुछ लिया हो तो। वह रो रही थी और दुहाई दे रही थी। पास ही श्रीमतीजी खड़ी बड़े धीरज से कह रही थीं कि चीखनेचिल्लाने से फायदा नहीं, धीरे-धीरे बातों का जवाब दो। ___मैंने कहा, "यह क्या तमाशा है ? क्यों किसी को सताया जा रहा है !" श्रीमती जी ने डाँटकर कहा, "तुमको किसने बुलाया ? क्यों री! बता तू उधर गई थी या नहीं ?"

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