________________
सजा
१६१
दिलाऊँ । यह दृश्य मुझे अच्छा नहीं मालूम हो रहा था । अत्यन्त शीलयुक्ता दीखने वाली नारी लज्जा को इस प्रकार से चुनौती दे उठे यह मुझे बहुत बीभत्स मालूम हुआ । पर श्रीमती जी की योजना का मुझे कुछ पता न था इससे मैं दखल न दे सका । तो भी मैंने उसे दिलासा दी, उसके हाथ छुड़वा दिए और कहा कि धीरज रखो।
मेरे पास आने और बोलने पर मिसरानी ने धोती को उसी तरह अपने सिर पर ले लिया । कोर माथे के आगे कर ली और रोकर बताया, "मैं कुछ नहीं जानती, मैं बेकसूर हूँ।"
मैं कुछ समाधान की बात कहने वाला ही था कि देखा वह सहसा उठकर वहाँ से तेज़ चाल से झपट चली है । रतना और बिहारी पकड़ने को लपके लेकिन मैंने उन्हें रोक दिया।
भागती-सी हुई वह अपने घर के दरवाजे पर पहुँची। पाँचसात मिनट बाद मुझे भी अपने घर से सुरजना बुला कर उधर ही ले गया। मैं नहीं कह सकता कि इसके बीच पाँच-सात मिनट में वहाँ क्या हुश्रा । पर पहुँचने पर देखा कि भीड़ के बीच में खड़ी मिसरानी कह रही है कि बटुआ तो मेरा था । एक दस का नोट दो रुपये और इतने आने उसमें हैं।
वहीं श्रीमतीजी खड़ी पूछ रही हैं, "और उसमें क्या है ?" "और कुछ काराज होंगे, बाकी पैसा नहीं है।"
तब सबके सामने श्रीमतीजी ने अपने हाथ का बटुआ दिखा कर उसका 'ज़िप खोला । अन्दर से तीन नए दस-दस के नोट निकले। ___ यह देख कर मिसरानी का चेहरा राख हो पाया था। पर वह दहाई देती जा रही थी कि जाने किस मुंह जले ने मेरे ट्रक में बटुआ रख दिया-इत्यादि-इत्यादि ।