Book Title: Jainendra Kahani 06
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 198
________________ सज़ा १८७ अय्यर की और हमारी यही राय रही कि किस्से को अब छोड़ा जाय । श्रीमती जी की तत्पर मुद्रा से मालूम होता था कि वह बात को यहीं छोड़ने पर कभी तैयार न होंगी। पर्स न मिला तो शक सुरजना पर भी ठहर सकता है। बस, यह उन्हें असह्य होगा। या तो बटुए को कहीं से मिलना होगा, नहीं तो सुरजना को पिटना होगा । सुरजना को मारते-मारते वह बेदम कर सकती हैं, पर एक क्षण को भी उसका चोर समझा जाना वह नहीं सह सकतीं। ___ बात-बात में मैंने जोर से कहा कि कौन तुम्हारे सुरजना को कुछ कहता है ? नहीं करेगा कोई उस पर शक । पर अब उस बात को छोड़ो भी। अय्यर का और भी आग्रह था कि इस किस्से पर अब एक भी मिनट और नहीं खर्च करना चाहिए । रुपया गया तो कोई जान तो अपनी नहीं गई। पर श्रीमती जी ने कहा कि तुम सुरजना पर शक न करने वाले कौन होते हो ? पर्स नहीं मिलता तो वह गया कहाँ ? जरूर सुरजना ने गायब किया होगा? और अगर सुरजना चोर है तो कहाँ से उसने चोरी सीखी ? पाठ बरस का मेरे यहाँ आया । अगर चोर है तो उसने चोरी हमारे घर के सिवा कहीं बाहर से नही सीखी । सुनते हो, अगर वह चोर है तो हमने उसे चोर बनाया है। हमने उसमें लालच की जगह रहने दी होगी, अविश्वास की जगह रहने दी होगी, तभी तो पर्स देखकर उसका मन डिगा । और मन डिगा भी तो वह बात हमसे कहने नहीं आया ! इसलिए कहीं-न-कहीं से बटुए को पाकर लाना होगा । नहीं तो मैं इस कम्बख्त सुरजना को जीता नहीं छोडूंगी। हमें, कम-से-कम मुझे, उनकी भावना और उनका तर्क समझ नहीं पाया और हमारे बीच से वह उठकर चली गई तो मुझे बुरा

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