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१८८ जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] नहीं लगा और मैं अय्यर से देश-विदेश और सिद्धान्त-नीति की बातें करने में लग गया और पर्स की बला को मन से दूर भगा दिया । __ अय्यर से मैं हमेशा कहता रहा हूँ कि देखो भाई, सेवा अच्छी चीज है। लेकिन जिन्दगी में पैर जमना भी जरूरी चीज है । क्या यह तुम गाँव-गाँव भटके फिरते हो! बताओ काँग्रेस में तुम किस श्रोहदे पर हो ? प्रोविन्शीयल के मेम्बर बन सके तो बहुत हुआ। देखते नहीं कि लीडर कौन हैं ! वह हैं जिनके पास सब-कुछ है। मोटी और पक्की आमदनी और बँगला और मोटर और आश्रितों का दल । तब सेवा भी उनको पूछती है । तुम्हारी जैसी सेवा नहीं कि जिसमें खुद को भी घुला दिया जाय। आदर्श ! आदर्श की बात न करो। व्यवहार देखो और व्यवहार कहता है कि सचाई से चतुराई की अधिक कीमत है । देखो मुझे ही दो-तीन साल के अन्दर देखना कि मैं काँग्रेस की तरफ से म्युनिसिपैलिटी में हूँगा
और काँग्रेस-सङ्गठन में भी तुम से आगे हूँ। अय्यर, यह छोड़ो, वह रास्ता पकड़ो जहाँ तुम्हारी असली काबलियत चमके। कहता हूँ कि यहाँ तुम एक अपना ग्रुप बनाओ। मेरी सेवाएँ अपनी समझो । स्थानीय पौलिटिक्स...
बात इस तरह स्थानीय से देश और फिर विदेश की ओर फैल चली। वह राजनीति के और सिद्धान्त-वाद के ऊँचे-ऊँचे कँगूरों को छूती उन पर उछलती फिरने लगी। उसमें गर्मी भी
आई । मैंने गाँधीवाद को तरह-तरह के तर्कों से घायल कर छोड़ा। मुझे विश्वास है कि अय्यर की कट्टरता ही उसे सुरक्षित रख सको. नहीं तो गाँधी-नीति धराशायी हो गई थी। अय्यर ने कम प्रखर तर्क नहीं दिये, लेकिन मेरे जवाब के श्रागे वे सभी कटकर रह गए । मैंने कहा, "देखो, अय्यर, गाँधीवाद के आधार पर तुम चले