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१८२ जैनेन्द्र की कहानियां [छठा भाग] दिया तब उसमें दूध छोड़ा। अय्यर कहते रह गए बस-बस, लेकिन श्रीमती जी ने हँसकर कहा
"खुद दे रही हूँ फिर भी डरोगे? लो, डरो नहीं।" अय्यर ने हँसकर कहा, "मैं बेगुनाह हूँ। मुझ पर कृपा क्यों ?" कहकर उसने प्याला उठा लिया।
उसकी भाभी ने उसी तरह हँसकर कहा, “सोचो नहीं, ज़हर ही अमृत होता है। आँख मींचकर राम के नाम के साथ पी जाओ।"
"तो लो" कहकर प्याला वह अोठों के पास ले गया।
लेकिन देखते क्या हैं कि प्याला उसने एकदम मेज पर रख दिया है और खड़े होकर वह सीने पर हाथ दबाकर कुर्ते की जेबों को टटोलने लगा है।
मैंने कहा, "क्यों, क्या हुआ ?"
उसने जवाब नहीं दिया और कभी इस जेब को तो कभी उस जेब को टटोलता रहा।
मैने फिर पूछा, "क्यों, क्या बात है ?"
संक्षिप्त-सा "कुछ नहीं" कहकर वह अपनी कुर्सी को हटा पुलिन्दे की धोती की तहों में अच्छी तरह दाब-दाबकर कुछ देखने लगा।
पता चला कि उसका पर्स गायब है । जाने क्या हुआ ? होना तो जेब में चाहिए था, कि सहसा उसे कुछ ख्याल आया और कुर्सियों के बीच से रास्ता बनाता हुआ वह अन्दर चला गया। थोड़ी देर में लौटा और कहा, "आपके नौकर का क्या नाम है ? उसने तो गुसलखाने में पर्स नहीं देखा ? मुझे ठीक याद है कि नहाते समय मैंने पर्स अलग निकालकर रखा था। लेकिन अब वहाँ नहीं है।"