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जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] उनमें कोई संगति हो नहीं दीख पड़तो थी। मुझे मालूम हो रहा था, मैं एकदम जानता तो बहुत-कुछ हूँ, फिर भी जाने क्यों, लिख कुछ नहीं पाता हूँ। इसी अवस्था में कब वे रुई के रेशे से भागते उड़ते हुए विचार और भी द्र तंपद हो गये, कब वे चित्रों के रूप में सामने आने लगे और कब वे सपने बन चले, पता नहीं।-घण्टेभर बाद जब आराम-कुरसी से मैं उठा तब पता चला कि मुझे नींद आ गई थी।
मुझे बड़ा बुरा मालूम हुआ कि कहानी जैसी चीज भी मैं नहीं लिख पाया । लेकिन, काम के अभाव में ही सही, नाम तो मुझे जरूर पाना है । इसलिए कहानी भी जरूर मुझे लिख डालना है। ____ यहाँ आपको इतना कहूँ कि मैं कई भाषाएँ जानता हूँ और पढ़ने के नाम पर बहुत कम ऐसा पढ़ने योग्य बचा होगा जो मैंने न पढ़ा हो । मैं समाज में मान्य गिना जाता हूँ,-प्रतिष्ठा के लिए भी, ज्ञान के लिए भी। इसके बाद, तत्पर होने पर भी, कहानी जैसी चीज मुझसे न लिखी जायगी यह असह्य मालूम होता है। फिर भी कहानी तो लिखी गई नहीं। कई बार कोशिश की और फल शून्य रहा । तब एकाएक बैठे-बैठे एक दिन याद पाया कि अरे, यहाँ पड़ोस में ही तो वह रहते हैं, क्या नाम है उनका ?जिन्हें कहानी का धनी समझा जाता है । चलो, उनके पास चलें । मालूम करें कि कहानी का क्या गुर है।
वहाँ पहुँचता हूँ तो देखता हूँ, एक सीधे-सादे-से आदमी हैं। कहानी का रोमान्स भूले भी उनके आसपास नहीं है । सीधी-सादी धोती है, उससे भी सीधा कुरता, और घर तो एकदम किसी भी तरह के रंगबिरंगपन से सूना है। जहाँ-तहाँ कुछ कागज, कुछ अखबार, एक-आध किताब है तो है, और कुछ नहीं है।
मुझे यह कुछ अच्छा नहीं मालूम हुआ। सोचने लगा, यहाँ