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प्रातिथ्य
भी समझता हूँ, बना रहा हूँ।
तो इसी मास्टरी के काल में कोई सात साल बाद एक रोज दिखाई दे गये वही कालेज वाले मित्र । __चाँदनी-चौक में कुछ खरीद कर रहे हैं। हैट है और चमकते बूट हैं, पतलून बड़ी नफीस है, कोट नाभि से जरा नीचे तक आ गया है।
कालेज की मेरी पढ़ाई की श्रेष्ठता रक्खी रही, और मैं मिमकता रहा । बोलूं या न बोलूँ ? बोलू कैसे बोलू, “सर' या और कुछ ? इतने में ही उन्होंने मुझे देखा।" .
“ो-हो, प्रसाद बाबू , तुम कहाँ !, हाऊ-डू-यू-डू।" मैंने गुनगुना दिया, "अच्छा हूँ, यही हूँ । कृपा है।"
वे निस्संकोच खुलकर बोले, खरीद भी होती जाती थी। एक हैट, कुछ ग्लब्ज, और कुछ और चीजें जिनकी अंग्रेजी नहीं
आती, खरीदी गई। तब फिर हाथ पकड़कर मुझे साथ ले चले । मुझे उनके बोलने में थोड़ी कहीं 'स्वामित्व की ध्वनि मालम हुई, बाकी कुछ नहीं ।
"कहो भाई, क्या करते हो ?" "मास्टरी से पेट भरता हूँ।"
मेरा भी पुराना साहस लौट आया। फिर अच्छी तरह बातें होने लगी। __ पता लगा बी० एस-सी० के बाद वे इंग्लैंड चले गये थे । वहाँ से हालेंड-डेनमार्क । उनका विषय गोरक्षा और गोवर्द्धन था । इस सम्बन्ध में वहाँ बड़ा काम होरहा है। सब देखा। उसी ओर की कोई डिग्री भी लाये हैं । गो-सेवा की ओर उनकी पहले से प्रवृत्ति है। वहाँ जाकर देखा कि इस सम्बन्ध में हिन्दुस्तान में काफी किया