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जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग ]
कारण हमारी समझ में यह है कि लक्खू को चिन्ता करने की जरूरत नहीं मालूम होती थी, इससे निश्चिन्त था; और महाजन, सूद-दर-सूद का हिसाब फैला सकते थे और दूर की सोच सकते थे, इससे वह भी निश्चिन्त थे ।
खैर, नीलाम की तारीख से १५ दिन पहले की बात है कि महाजन ने लक्खू को निकलते देखकर अपनी दुकान पर बुला कर बैठाया और ५-७ मिनट साधारण बातचीत के बाद बही के एक पन्ने में दिखाया कि तीन साल हुए, उसने आठ रुपये के आलू उधार लिये थे । अमुक दिन था, अमुक तिथि थी । महाजन देखता था अब भुगताये, अब भुगताये, हिसाब पुराना चला आ रहा है, निपट जाना चाहिए । सूद फैलाकर पचास रुपया होते हैं। लक्खू चाहे तो हिसाब समझ सकता है । ब्याज दर कुछ ज्यादे नहीं लगाई गई। जो मामूली है, उससे कम ही लगाई है ।
लक्खू कुछ न समझ सका । वह चुपचाप महाजन को देखता रहा ।
महाजन ने कहा, "देखो, जल्दी दे दोगे तो ठीक होगा ।" लक्खू उठकर चल दिया । उसने कहा, 'पचास रुपये' यह मानो उसने आसमान से कहा, या अपने से ही कहा ! किससे कहा, यह वह खुद नहीं जानता । यह निश्चय है कि महाजन से नहीं कहा । उसे नहीं मालूम वह कहाँ है, महाजन कहाँ है । 'पचास रुपये !' पचास किसे कहते हैं— पचास, पचास क्या चीज ! रुपये ! पचास रुपये क्या ! - वह मानो कुछ भी न समझ सका । मुँह से वह कहता था 'पचास रुपये', पर जानता न था, वह क्या कह रहा है।
ज्यों-ज्यों समय बीता, पचास रुपये का अर्थ समझ में आने लगा । उसे मालूम हो गया, पचास रुपया उसे महाजन को देने हैं—देने होंगे ।