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१७६ जैनेन्द्र की कहानियां [छठा भाग] कह रहे हो ? तुम तो यह चोरी पर जैसे सीना-जोरी का उपदेश देते हो। तुम तो गाँव में सबसे भले आदमी समझे जाते थे। मैं जानता था तुम ऐसे हो गये हो, पर समझता था तुम इस पर अफ़सोस करते होगे।"
'धन्नू ने उत्तर दिया, "जिस पर अफसोस करूं, ऐसा काम मैं अपनी शक्ति-भर कभी नहीं करता। तुम जानते हो, मैं अकेला हूँ, मेरे आगे-पीछे काई नहीं। लाचार होकर तो मैं ऐसे काम में पड़ नहीं सकता था। मैं मरने से भी नहीं डरता। भूखों मरने की ही चाहे नौबत क्यों न आ जाती, अपने पेट के खयाल से तो मैं ऐसा कभी न करता। मैं इतना निकम्मा, इतना नीच कभी नहीं हो सकता। मैं तो इसमें जान-बूझकर, सोच-समझकर पड़ा हूँ।
और मैं समझता हूँ, मैं कभी भला आदमी था, तो उससे आज ज्यादे ही हूँ-कम नहीं।"
लक्खू ने साफ-साफ कह दिया कि उसकी बातें पागलपन की बातें हैं, और वह और आगे नहीं सुनना चाहता । धन्नू ने इस पर चलने की तैयारी की और पाँच रुपये निकालकर देने लगा। कहा, "इस वक्त और ज्यादे नहीं हैं, इसका मुझे दुःख है।"
लक्खू ने लेने से साफ इनकार कर दिया। धन्नू ने कहा, "बेवकूफ मत बनो। मेरा कहा मानो। रुपये ले लो, काम आएँगे।" __उसने न लिये । धन्नू ने कहा, "तुम्हारे लिए नहीं, बच्चों के लिए और माँ के लिए दे रहा हूँ।" ___ उसने लेना फिर भी स्वीकार न किया। धन्नू ने फिर भी कोशिश की, पर उसने हठ न छोड़ी। धन्नू चला गया। ___ उसके सात रोज के बाद की बात है। जङ्गल में एक सूने शिवाले में लक्खू रहता था। आज दिन-भर बच्चों को कुछ नहीं मिला। खुद वह तीन रोज से निराहार भटकता रहा है। औरों को भी डेढ़-डेढ़, दो-दो रोज़ का उपवास हो गया है । धन्नू पाया।