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१७२ जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] आश्रितों को एक बार सूखा नाज देकर और आप सिर्फ पानी पर सन्तोष मानकर, दस दिन तक घास खोदकर, लकड़ी ढोकर, भीख माँगकर, लक्खू छह रुपये इकट्ठे कर पाया । महाजन के पास जाकर बोला, "लो महाजन, छह रुपया ये लो। ऐसे ही धीरे-धीरे भुगता दूंगा।"
महाजन ने कह दिया, “वाह पचास के एवज में छह रुपये !”
लक्खू मुंह लटकाकर जब चलने लगा, तो महाजन ने कुछ सोचकर उसे बुला लिया और उससे छह रुपये ले लिये। लेकिन पचास की जगह छह लेकर अनन्त काल तक तो ठहरा नहीं जा सकता, इसलिए कुछ ही दिन बाद महाजन ने अदालत में जाकर, खरे दाम चुकाकर पूरे पचास की डिग्री करा ली। ___ झोंपड़ा नीलाम पर चढ़ा । लक्खू बे-घर हुआ। उसके आश्रित निराश्रय हुए। वह घर, जिसमें लक्खू के पुराने दिन, बीते हुए याद के दिन, सुख के विलास के उल्लास के दिन, अब भी जिन्दा थे, जो लक्खू के समीप उसके बाप का, उसकी माँ के समीप उसके पति का, एक मात्र अवशेष संस्मृति-चिह्न था; जो उनके जीवन में घुल-मिल गया था, जिसके कोनों में, भीतर-बाहर चारों तरफ मानों अपनी शाखा-प्रशाखाएँ फैलाकर उनका जीवन-वृक्ष फला-फूला था, जिसके आँगन में लक्खू की माँ का लगाया एक इमली का दरख्त था और जिसके छप्पर पर लक्खू की लगाई कुम्हड़े की बेल थी, वह घर, वह झोंपड़ा, जब बिराने हाथों में चले जाने के लिए बलात् छोड़ना पड़ा, तो मानों आत्मा को, कुत्तों और गिद्धों के खाद्य के लिए अपना शरीर छोड़ना पड़ा।
जब ये सब घर से निकले, लक्खू के सिर पर दो मिट्टी की हड़ियाँ और एक हाथ में एक पोटली थी. बहू की छाती पर एक बच्चा और अंगुली पकड़े हुए दूसरा बच्चा था। बड़ा बालक माँ का हाथ थामे-थामे चल रहा था। पीछे लक्व की माँ भी आ