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चोरी
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का नया युग हमें उसके नजदीक ला रहा है। इस युग की सभी सौगातें खरीदी जा सकती हैं। डिग्री, ऊँची कुर्सी, पदवी, प्रभुत्व, ईमान और आदमी इन सभी चीजों को सभ्यता के युग ने सभी के लिए सहज और प्राप्य बना दिया है । 'सभी' से हमारा मतलब उन सभी से है, जो किसी भी तरीके से क्यों न हो, उनके उचित दाम चुकाने के लिए भरी जेबों के स्वामी हों।
हमको इतना मालूम है और लक्खू को भी इतना ही याद है कि तीन साल पहले उसने महाजन से आलू का बीज लिया था
और उसकी कीमत आठ रुपया होती थी। वह दिये या नहीं दिये; सो उसे याद नहीं है । आठ रुपया उसने एक ही वक्त नकद दे दिये हों, इस पर तो सचमुच विश्वास नहीं होता। यह तो बेचारा लक्खू भी सोचने की हिम्मत नहीं कर सकता, पर उसे इस पर अचरज जरूर है कि तीन साल के रुपये उसने अब तक चुकाये क्यों नहीं ! उसकी आदत तो ऐसी नहीं है। शायद उसने फसल पर कुछ भालू दिये तो थे ! कुछ गल्ला भी महाजन के घर भिजवा दिया था ! लेकिन कैसे ? महाजन की बही में तो दर्ज नहीं है,
और बही के सामने कोरी याद का भरोसा कैसे किया जा सकता है ? __जो कुछ हो, महाजन का कहना है कि उन्हें पैसा वापिस नहीं मिला, और चूँकि महाजन के पल्ले अच्छी खासी रकम है, इसलिए उनका अविश्वास भी नहीं किया जा सकता। फिर उनके पास बही है, और वह निश्चय से, जोर से, धर्म के नाम पर, जो कहो उसकी कसम खाकर यह कहने को तैयार हैं। ____ उधर लक्खू गँवार है, दरिद्र है । उसे निश्चय नहीं है; सहमतेसहमते बात करता है और कसम से डरता है।
लेकिन ऐन डिग्री के मौके पर ही इतने पुराने कर्ज का जिक्र क्यों छिड़ा, इसकी बहस में पड़ने को लोग तैयार नहीं हैं। इसका