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कश्मीर-प्रवास के दो अनुभव
१६७ उस समय हमारी आत्मा भीज उठी, और हमारी आँखें भी भीज आई।
हमारा अन्तर स्नेह से खूब भिगो दिया गया, और हम भोजन के बाद कुछ इधर-उधर की और पवित्र बातचीत करके चले आये।
-और हमें पता चला कि पिछले वर्ष, इस परिवार के प्रत्येक आत्मा की विविध मनौतियों, संचित आकांक्षाओं, और विपुल व्यय के उत्तर में, किसी व्यक्ति ने दक्षिणा-दान-यज्ञादि के पर्याप्त आडम्बर के बाद इन्हें बताया था कि अमुक शुभ लग्न के अवसर पर वे दूर से चले आते हुए तीन साधुओं को आहारदान देंगे, तो उन्हें वरदान प्राप्त होगा और उनकी पुत्र-कामना की सिद्धि अवश्यम्भावी है।
साल-भर से उसी दिन की आस बाँधे वह सज्जन बैठे थे। वह दिन आया, प्रभात से वह मन्दिर पर आ रहे-अब तीन साधु आते हैं, अब आते हैं ! सबेरे से निराहार, अपने भाग्य के अन्तिम परीक्षा-फल की प्रतीक्षा में । सूरज निकला, सूरज चढ़ा; साधु आये, साधु गये-वह खड़े हैं-अब तीन साधु आते हैं, अब आते हैं ! घंटे-पर-घंटे गिनती की तरह बजते चले गये। मन्दिर भर गया, और मन्दिर खाली हो गया। बगीचा कलरव से गूंजा, और अब सन्नाटा है-वे तीन साधु आते हैं, अब आते हैं !
-और तीन बजे हम तीन साधु पहुँचे......