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१६६ जैनेन्द्र की कहानियां [छठा भाग] पाकर यह अपनी आँख पा लें, अपने जीवन का आधार, अपने भीतर का प्राण पा लें । पत्नी को भी एक बालक की बेहद चाह थी, जो किशन-कन्हाई बनकर इस घर के छोटे-से आँगन में कुछ ऊधम मचाये, कुछ तोड़-फोड़ करे; नहीं तो यह आँगन साफ, शान्त, सुव्यवस्थित, सुन्न और सदा एक जैसा ऐसा पड़ा रहता है, जाने बेजान हो, मुर्दा हो, भूत हो-चुप-चाप साँस रोक कर, जैसे कोई भयंकर प्राणी पड़ा हो, जो अब काटेगा, अब काटेगा।
हमको एक चटाई पर बैठा कर झट-पट करके तीन थालियाँ हमारे सामने रख दी गई।
सज्जन ने धीरे से कहा, "पंखा कर, पंखा कर ।" हमें लगा जैसे हमारे में आँख-आगे से सब-कुछ गया, गया!
पत्नी को भोजन की व्यवस्था की सम्भाल में से छुट्टी मिलने में कुछ क्षण लग ही जाने थे। इन्हीं क्षणों में माँ ने बिना देखे ही कहीं-न-कहीं से पंखा खींच लिया और झलने लगीं। हमने कहा, "नहीं-नहीं......"
किन्तु कश्मीर में गर्मी नहीं होती, इसका यह अर्थ नहीं है, कि माँ पंखा करना छोड़ दें । यह तो गर्मी का पंखा नहीं था, हृदय का पंखा था । हवा की जगह उससे स्नेह लहराया जा रहा था। __ माँ इस स्नेह की डोर में बँधी हमारे पास ही सरकती आई । महात्मा जी उस ओर के किनारे पर बैठे थे। माँ ने उनके सिर पर अपना आशीर्वाद का हाथ रक्खा। वह हाथ फिर सिर पर टहलता हुआ और टटोलता हुआ गर्दन पर आया, और फिर महात्मा जी की निर्वस्त्र कमर को सुहलाने लगा। महात्मा जी की नंगी पीठ पर अपना हाथ फेरते-फेरते उनकी आँखों से आँसू
आ-आकर टपकने लगे । वह पंखा झलती रहीं, रोती रहीं, और इसी प्रकार अपना दाहना सूखा हाथ महात्मा जी के सिर के बड़ेबड़े बालों पर, दाढ़ी पर, मुँह पर, कमर पर फेरती रहीं।