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कश्मीर-प्रवास के दो अनुभव
उस साधु ने कहा, "वह तो कभी के चले गये यहाँ से। अनन्तनाग पहुँच भी चुके होंगे।"
हमने हठात् कहा, “गये ?" "हाँ, गये, गये !"
किन्तु, उसी समय पास ही से सुन पड़ा, "महाराज, पधारिये।"
हमने देखा, कि अधेड़ वयस के एक ब्राह्मण पुरुष खड़े हैं और करबद्ध कृतज्ञ भाव से कह रहे हैं, "महाराज, पधारिये।"
हमने पूछा, "कहाँ ?" "महाराज, भोजन पाने पधारिये।"
उस समय हम एक दम निश्चिन्त होकर आनन्द-मग्न हो गये। धीरे-धीरे सामान उतारा, सुहलाये, हँसे, टहले, बैठे, लेटे और नीचे आई उस चिनार की डाल की छाया में वितस्ता की धारा में स्नान कर डालने की ठहराने लगे। सोचा, पसीने से भीगे कपड़ों को चलो लगे-हाथ धो भी डालें।
हँस-खेल-कूद कर और तैर कर मजे-मजे में हम नहाये । मजे-मजे में कपड़े घोये-और वह सज्जन उसी प्रकार विनम्र हमें अवकाश मिलने की प्रतीक्षा करते हुए खड़े रहे ।
निबट कर हम उनके साथ हो लिये। वह चुप-चुप हमारे साथ चले । मानों धन्य और कृतज्ञ भाव से पानी-पानी हो कर बह न जाय, इस तरह अपने-आप में बन्द होकर सूक्ष्म होते हुए वह चल रहे थे। ____ मकान साधारण था और घर में एक माँ थीं और पत्नी थीं । माँ बरसों से नेत्र-हीना हो गई थीं और पत्नी के कोई बाल-बच्चा न था। माँ को एक शिशु की आवश्यकता थी, जिसके कोमल गात को छू-छूकर और जिसके साथ मचल कर और हँस कर वह अपने जराच्छादित एकाकीपन की याद से कुछ क्षण छुट्टी पा लें । जिसको