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जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग ]
में हमारा इंतज़ार कर रही थी। हम पहुँचे कि वह वहाँ घटित होगी। आँख खोल देने वाले दिव्य प्रकाश की भाँति वह वहाँ हमको लेकर सम्पन्न हो उठेगी ।
महात्माजी की बात सुनकर हम अपनी धधकती भूख को भीतर ही भीतर लिये रहकर वीर की भाँति आगे बढ़ते रहे ।
अनन्तनाग से लगभग छ: मील इधर अवंतिपुर है । सूरज पच्छिम की ओर ढला आ रहा था। तीन बजते होंगे । कमर से दो लोइयाँ और कुछ और सामान लपेटे, पसीने से तर-बतर और साँस से उफनते हुए हम अवंतिपुर में प्रविष्ट हुए । बस्ती का पहला मकान आया, हमने चैन की साँस ली। कोई मिला, पूछा, "मन्दिर कहाँ है ?"
" आगे”
आगे बढ़े। फिर पूछा, “मन्दिर कहाँ है ?" " वह आगे - "
हम आगे बढ़ते रहे, और मन्दिर भी हमारे आगे-आगे बढ़ता रहा। पौन मील तो कम से कम और चले, सारी बस्ती पार की, और तब आया मन्दिर ।
मन्दिर आया । शोभनीय स्थान है । प्राचीन पद्धति का शाही द्वार है । भीतर बगीचा भी है । मन्दिर के जीने के चरणों को पखारती हुई वितस्ता बहती है । गुल्म हैं, चिनार के सघन वृक्ष छाये हैं- कुछ हो, यहाँ हम विश्राम पायेंगे, और महन्त यहाँ मिले, तो फिर वाह ! - और महन्त न मिले तो ...?
हम पहले से बहुत कुछ हल्के मन से भीतर प्रविष्ट हुए । जो साधु पहले मिला उससे पूछा, “ श्रीचन्द 'चिनार के महन्त' हैं या गये ?” — और अपने झोले वोले उतार कर बैठने की तैयारी करने लगे ।